Saturday, December 6, 2014

प्रेमचंद की कहानी : बड़े भाई साहब

मेरे भाई साहब मुझसे पॉँच साल बडे़ थे, लेकिन तीन दरजे आगे। उन्होंने भी उसी उम्र में पढ़ना शुरु किया
था जब मंैने शुरु किया लेकिन तालीम जैसे महत्त्व के मामले में वह जल्दीबाजी से काम लेना पसंद न करते
थे। इस भवन कि बुनियाद खूब मजबूत डालना चाहते थे जिस पर आलीशान महल बन सके। एक साल
का काम दो साल में करते थे। कभी-कभी तीन साल भी लग जाते थे। बुनियाद ही पुख्ता न हो, तो मकान
कैसे पाएदार बने।

मैं छोटा था, वह बडे़ थे। मेरी उम्र नौ साल की, वह चैदह साल के थे। उन्हें मेरी तम्बीह और निगरानी का
पूरा जन्मसिद्ध अधिकार था। और मेरी शालीनता इसी में थी कि उनके हुक्म को कानून समझूँ।
वह स्वभाव से बडे़ अध्ययनशील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग को आराम देने के
लिए कभी काॅपी पर, कभी किताब के हाशियों पर चिडि़यों, कुत्तों, बिल्लियांे की तस्वीरें बनाया करते थे।
कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को बार-बार सुन्दर
अक्षर से नकल करते। कभी ऐसी शब्द-रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्य! मसलन
एक बार उनकी काॅपी पर मैंने यह इबारत देखी- स्पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दर-असल, भाई-भाई,
राधेश्याम, श्रीयुत राधेश्याम, एक घंटे तक इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था। मैंने चेष्टा
की कि इस पहेली का कोई अर्थ निकालूँ लेकिन असफल रहा और उसने पूछने का साहस न हुआ। वह
नवी जमात में थे, मैं पाँचवी में। उनकी रचनाआंे को समझना मेरे लिए छोटा मुंह बड़ी बात थी।
मेरा जी पढ़ने में बिलकुल न लगता था। एक घंटा भी किताब लेकर बैठना पहाड़ था। मौका पाते ही
हाॅस्टल से निकलकर मैदान में आ जाता और कभी कंकरियाँ उछालता, कभी कागज़ कि तितलियाँ उड़ाता,
और कहीं कोई साथी मिल गया तो पूछना ही क्या कभी चारदीवारी पर चढ़कर नीचे कूद रहे हंै, कभी
फाटक पर वार, उसे आगे-पीछे चलाते हुए मोटरकार का आनंद उठा रहे हैं। लेकिन कमरे में आते ही भाई
साहब का रौद्र रूप देखकर प्राण सूख जाते। उनका पहला सवाल होता-‘कहाँ थे?‘ हमेशा यही सवाल,
इसी ध्वनि में पूछा जाता था और इसका जवाब मेरे पास केवल मौन था। न जाने मुँह से यह बात क्यों न
निकलती कि जरा बाहर खेल रहा था। मेरा मौन कह देता था कि मुझे अपना अपराध स्वीकार है और भाई
साहब के लिए इसके सिवा और कोई इलाज न था कि रोष से मिले हुए शब्दों में मेरा सत्कार करें।
‘इस तरह अंग्रेजी पढ़ोगे, तो जि़न्दगी-भर पढ़ते रहोगे और एक हर्फ न आएगा। अंग्रेजी पढ़ना कोई
हंँसी-खेल नहीं है कि जो चाहे पढ़ ले, नहीं, ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सभी अंग्रेजी के विद्वान हो जाते। यहाँ
रात-दिन आँखंे फोड़नी पड़ती है और खून जलाना पड़ता है, जब कही यह विधा आती है। और आती क्या
है, हाँ, कहने को आ जाती है। बडे़-बडे़ विद्वान भी शुद्ध अंग्रेजी नहीं लिख सकते, बोलना तो दूर रहा। और
मैं कहता हूँ, तुम कितने घोंघा हो कि मुझे देखकर भी सबक नहीं लेते। मैं कितनी मेहनत करता हूँ, तुम
अपनी आँखांे देखते हो, अगर नहीं देखते, तो यह तुम्हारी आँखो का कसूर है, तुम्हारी बुद्धि का कसूर है।
इतने मेले-तमाशे होते है, मुझे तुमने कभी देखने जाते देखा है, रोज ही क्रिकेट और हाॅकी मैच होते हैं। मैं
पास नहीं फटकता। हमेशा पढ़ता रहा हूँ, उस पर भी एक-एक दरजे में दो-दो, तीन-तीन साल पड़ा रहता
हूँ फिर तुम कैसे आशा करते हो कि तुम यों खेल-कूद में वक्त गंवाकर पास हो जाओगे? मुझे तो
दो-ही-तीन साल लगते हैं, तुम उम्र-भर इसी दरज़े में पड़े सड़ते रहोगे। अगर तुम्हे इस तरह उम्र गंवानी
है, तो बेहतर है, घर चले जाओ और मजे से गुल्ली-डंडा खेलो। दादा की गाढ़ी कमाई के रुपये क्यों
बरबाद करते हो?’

मैं यह लताड़ सुनकर आंसू बहाने लगता। जवाब ही क्या था। अपराध तो मैंने किया, लताड़ कौन सहे?
भाई साहब उपदेश कि कला में निपुण थे। ऐसी-ऐसी लगती बातें कहते, ऐसे-ऐसे सूक्ति-बाण चलाते कि
मेरे जिगर के टुकडे़-टुकडे़ हो जाते और हिम्मत छूट जाती। इस तरह जान तोड़कर मेहनत करने की
शक्ति मैं अपने में न पाता था और उस निराशा मे ज़रा देर के लिए मैं सोचने लगता-क्यों न घर चला
जाऊँ। जो काम मेरे बूते के बाहर है, उसमे हाथ डालकर क्यों अपनी जि़न्दगी खराब करूं। मुझे अपना मूर्ख
रहना मंजूर था लेकिन उतनी मेहनत से मुझे तो चक्कर आ जाता था। लेकिन घंटे दो घंटे बाद निराशा के
बादल फट जाते और मैं इरादा करता कि आगे से खूब जी लगाकर पढू़ंगा। चटपट एक टाइम-टेबिल बना
डालता। बिना पहले से नक्शा बनाए, बिना कोई स्कीम तैयार किए काम कैसे शुरू करूं? टाइम-टेबिल में,
खेल-कूद की मद बिलकुल उड़ जाती। प्रातःकाल उठना, छः बजे मुँह-हाथ धोना, नाश्ता कर पढ़ने बैठ
जाना। छः से आठ तक अंग्रेजी, आठ से नौ तक हिसाब, नौ से साढ़े नौ तक इतिहास, फिर भोजन और
स्कूल। साढ़े तीन बजे स्कूल से वापस होकर आधा घंटा आराम, चार से पाँच तक भूगोल, पाँच से छः तक
ग्रामर, आधा घंटा हाॅस्टल के सामने टहलना, साढ़े छः से सात तक अंग्रेजी कम्पोजीशन, फिर भोजन करके
आठ से नौ तक अनुवाद, नौ से दस तक हिन्दी, दस से ग्यारह तक विविध विषय, फिर विश्राम।
मगर टाइम-टेबिल बना लेना एक बात है, उस पर अमल करना दूसरी बात। पहले ही दिन से उसकी
अवहेलना शुरु हो जाती। मैदान की वह सुखद हरियाली, हवा के वह हलके-हलके झोंके, फुटबाल की
उछल-कूद, कबड्डी के वह दाँव-घात, वाली-बाल की वह तेजी और फुरती मुझे अज्ञात और अनिवार्य रूप
से खींच ले जाती और वहाँ जाते ही मैं सब कुछ भूल जाता। वह जान-लेवा टाइम-टेबिल, वह आँखफोड़
पुस्तकें किसी कि याद न रहती, और फिर भाई साहब को नसीहत और फजीहत का अवसर मिल जाता। मैं
उनके साये से भागता, उनकी आँखों से दूर रहने कि चेष्टा करता। कमरे मे इस तरह दबे पाँव आता कि
उन्हें खबर न हो। उनकी नज़र मेरी ओर उठी और मेरे प्राण निकले। हमेशा सिर पर नंगी तलवार-सी
लटकती मालूम होती। फिर भी जैसे मौत और विपत्ति के बीच मे भी आदमी मोह और माया के बंधन में
जकड़ा रहता है, मैं फटकार और घुड़कियाँ खाकर भी खेल-कूद का तिरस्कार न कर सकता।

2.
सालाना इम्तहान हुआ। भाई साहब फेल हो गए, मैं पास हो गया और दरजे में प्रथम आया। मेरे और
उनके बीच केवल दो साल का अन्तर रह गया। जी में आया, भाई साहब को आडे़ हाथो लूँ। आपकी वह
घोर तपस्या कहाँ गई? मुझे देखिए, मजे से खेलता भी रहा और दरजे में अव्वल भी हूँ। लेकिन वह इतने
दुःखी और उदास थे कि मुझे उनसे दिल्ली हमदर्दी हुई और उनके घाव पर नमक छिड़कने का विचार ही
लज्जास्पद जान पड़ा। हाँ, अब मुझे अपने ऊपर कुछ अभिमान हुआ और आत्माभिमान भी बढ़ा भाई साहब
का वह रौब मुझ पर न रहा। आज़ादी से खेल-कूद में शरीक होने लगा। दिल मजबूत था। अगर उन्होंने
फिर मेरी फजीहत की, तो साफ कह दूँगा- आपने अपना खून जलाकर कौन-सा तीर मार लिया। मैं तो
खेलते-कूदते दरजे में अव्वल आ गया। जबाव से यह हेकड़ी जताने का साहस न होने पर भी मेरे रंग-ढंग
से साफ ज़ाहिर होता था कि भाई साहब का वह आतंक अब मुझ पर नहीं है। भाई साहब ने इसे भाँप
लिया-उनकी सहज बुद्धि बड़ी तीव्र थी और एक दिन जब मैं भोर का सारा समय गुल्ली-डंडे कि भेंट
करके ठीक भोजन के समय लौटा, तो भाई साहब ने मानों तलवार खींच ली और मुझ पर टूट पड़े-देखता
हूँ, इस साल पास हो गए और दरजे में अव्वल आ गए, तो तुम्हंे दिमाग हो गया है मगर भाईजान, घमंड तो
बडे़-बडे़ का नहीं रहा, तुम्हारी क्या हस्ती है, इतिहास में रावण का हाल तो पढ़ा ही होगा। उसके चरित्र से
तुमने कौन-सा उपदेश लिया? या यों ही पढ़ गए? महज इम्तहान पास कर लेना कोई चीज नहीं, असल
चीज़ है बुद्धि का विकास। जो कुछ पढ़ो, उसका अभिप्राय समझो। रावण भूमंडल का स्वामी था। ऐसे
राजाओं को चक्रवर्ती कहते हैं। आजकल अंग्रेजों के राज्य का विस्तार बहुत बढ़ा हुआ है, पर इन्हंे चक्रवर्ती
नहीं कह सकते। संसार में अनेको राष्ट्र अंग्रेजों का आधिपत्य स्वीकार नहीं करते। बिलकुल स्वाधीन हैं।
रावण चक्रवर्ती राजा था। संसार के सभी महीप उसे कर देते थे। बडे़-बडे़ देवता उसकी गुलामी करते थे।
आग और पानी के देवता भी उसके दास थे मगर उसका अंत क्या हुआ, घमंड ने उसका नाम-निशान तक
मिटा दिया, कोई उसे एक चुल्लू पानी देने वाला भी न बचा। आदमी जो कुकर्म चाहे करें पर अभिमान न
करे, इतराए नहीं। अभिमान किया और दीन-दुनिया से गया।

शैतान का हाल भी पढ़ा ही होगा। उसे यह अनुमान हुआ था कि ईश्वर का उससे बढ़कर सच्चा भक्त कोई
है ही नहीं। अन्त में यह हुआ कि स्वर्ग से नरक में ढकेल दिया गया। शाहेरूम ने भी एक बार अहंकार
किया था। भीख मांग-मांगकर मर गया। तुमने तो अभी केवल एक दरजा पास किया है और अभी से
तुम्हारा सिर फिर गया, तब तो तुम आगे बढ़ चुके। यह समझ लो कि तुम अपनी मेहनत से नहीं पास हुए,
अन्धे के हाथ बटेर लग गई। मगर बटेर केवल एक बार हाथ लग सकती है, बार-बार नहीं। कभी-कभी
गुल्ली-डंडे में भी अंधा चोट निशाना पड़ जाता है। उससे कोई सफल खिलाड़ी नहीं हो जाता। सफल
खिलाड़ी वह है, जिसका कोई निशाना खाली न जाए।

मेरे फेल होने पर न जाओ। मेरे दरजे में आओगे, तो दाँतांे पसीना आयेगा। जब अलजबरा और जाॅमेट्री के
लोहे के चने चबाने पड़ेंगे और इंगलिस्तान का इतिहास पढ़ना पड़ेगा! बादशाहों के नाम याद रखना आसान
नहीं। आठ-आठ हेनरी को गुजरे हैं, कौन-सा कांड किस हेनरी के समय हुआ, क्या यह याद कर लेना
आसान समझते हो? हेनरी सातवें की जगह हेनरी आठवां लिखा और सब नम्बर गायब! सफाचट। सिर्फ भी
न मिलेगा, सिफर भी! हो किस ख्याल में! दरजनांे तो जेम्स हुए हैं, दरजनों विलियम, कौडि़यों चाल्र्स
दिमाग चक्कर खाने लगता है। अंधी रोग हो जाता है। इन अभागों को नाम भी न जुड़ते थे। एक ही नाम
के पीछे दोयम, तेयम, चहारम, पंचम लगाते चले गए। मुझसे पूछते, तो दस लाख नाम बता देता।
और जामेट्री तो बस खुदा की पनाह! अ ब ज की जगह अ ज ब लिख दिया और सारे नम्बर कट गए।
कोई इन निर्दयी मुतमईनों से नहीं पूछता कि आखिर अ ब ज और अ ज ब में क्या फर्क है और व्यर्थ की
बात के लिए क्यांे छात्रों का खून करते हो दाल-भात-रोटी खायी या भात-दाल-रोटी खायी, इसमें क्या
रखा है मगर इन परीक्षकांे को क्या परवाह! वह तो वही देखते हैं, जो पुस्तक में लिखा है। चाहते हैं कि
लड़के अक्षर-अक्षर रट डाले और इसी रटंत का नाम शिक्षा रख छोड़ा है और आखिर इन बे-सिर-पैर की
बातों के पढ़ने से क्या फायदा?

इस रेखा पर वह लम्ब गिरा दो, तो आधार लम्ब से दुगना होगा। पूछिए, इससे प्रयोजन? दुगना नहीं,
चैगुना हो जाए, या आधा ही रहे, मेरी बला से, लेकिन परीक्षा में पास होना है, तो यह सब खुराफात याद
करनी पड़ेगी। कह दिया-‘समय की पाबंदी’ पर एक निबन्ध लिखो, जो चार पन्नों से कम न हो। अब आप
काॅपी सामने खोले, कलम हाथ में लिये, उसके नाम को रोइए।

कौन नहीं जानता कि समय की पाबन्दी बहुत अच्छी बात है। इससे आदमी के जीवन में संयम आ जाता है,
दूसरो का उस पर स्नेह होने लगता है और उसके कारोबार में उन्नति होती है। ज़रा-सी बात पर चार
पन्ने कैसे लिखें? जो बात एक वाक्य में कही जा सके, उसे चार पन्ने में लिखने की जरूरत? मैं तो इसे
हिमाकत समझता हूँ। यह तो समय की किफायत नहीं, बल्कि उसका दुरुपयोग है कि व्यर्थ में किसी बात
को ठूंस दिया। हम चाहते हैं, आदमी को जो कुछ कहना हो, चटपट कह दे और अपनी राह ले। मगर नहीं,
आपको चार पन्ने रंगने पडे़ंगे, चाहे जैसे लिखिए और पन्ने भी पूरे फुलस्केप आकार के। यह छात्रांे पर
अत्याचार नहीं तो और क्या है? अनर्थ तो यह है कि कहा जाता है, संक्षेप में लिखो। समय की पाबन्दी पर
संक्षेप में एक निबन्ध लिखो, जो चार पन्नों से कम न हो। ठीक! संक्षेप में चार पन्ने हुए, नहीं शायद सौ-दो
सौ पन्ने लिखवाते। तेज भी दौडि़ए और धीरे-धीरे भी। है उल्टी बात या नहीं? बालक भी इतनी-सी बात
समझ सकता है, लेकिन इन अध्यापकों को इतनी तमीज़ भी नहीं। उस पर दावा है कि हम अध्यापक है।
मेरे दरजे में आओगे लाला, तो ये सारे पापड़ बेलने पड़ेंगे और तब आटे-दाल का भाव मालूम होगा। इस
दरजे में अव्वल आ गए हो, वो ज़मीन पर पाँव नहीं रखते इसलिए मेरा कहना मानिए। लाख फेल हो गया
हूँ, लेकिन तुमसे बड़ा हूँ, संसार का मुझे तुमसे ज्यादा अनुभव है। जो कुछ कहता हूँ, उसे गिरह बांधिए
नहीं पछताएँगे।

स्कूल का समय निकट था, नहीं ईश्वर जाने, यह उपदेश-माला कब समाप्त होती। भोजन आज मुझे
निःस्वाद-सा लग रहा था। जब पास होने पर यह तिरस्कार हो रहा है, तो फेल हो जाने पर तो शायद
प्राण ही ले लिए जाएं। भाई साहब ने अपने दरजे की पढ़ाई का जो भयंकर चित्र खींचा था उसने मुझे
भयभीत कर दिया। कैसे स्कूल छोड़कर घर नहीं भागा, यही ताज्जुब है लेकिन इतने तिरस्कार पर भी
पुस्तकों में मेरी अरुचि ज्यो-कि-त्यों बनी रही। खेल-कूद का कोई अवसर हाथ से न जाने देता। पढ़ता भी
था, मगर बहुत कम। बस, इतना कि रोज का टास्क पूरा हो जाए और दरजे में जलील न होना पड़े। अपने
ऊपर जो विश्वास पैदा हुआ था, वह फिर लुप्त हो गया और फिर चोरांे का-सा जीवन कटने लगा।

3
फिर सालाना इम्तहान हुआ, और कुछ ऐसा संयोग हुआ कि मैं फिर पास हुआ और भाई साहब फिर फेल
हो गए। मैंने बहुत मेहनत न की पर न जाने, कैसे दरजे में अव्वल आ गया। मुझे खुद अचरज हुआ। भाई
साहब ने प्राणांतक परिश्रम किया था। कोर्स का एक-एक शब्द चाट गये थे। दस बजे रात तक इधर, चार
बजे भोर से उधर, छः से साढ़े नौ तक स्कूल जाने के पहले। मुद्रा कांतिहीन हो गई थी, मगर बेचारे फेल
हो गए। मुझे उन पर दया आती थी। नतीजा सुनाया गया, तो वह रो पड़े और मैं भी रोने लगा। अपने पास
होने वाली खुशी आधी हो गई। मैं भी फेल हो गया होता, तो भाई साहब को इतना दुःख न होता, लेकिन
विधि की बात कौन टाले?

मेरे और भाई साहब के बीच में अब केवल एक दरजे का अन्तर और रह गया। मेरे मन में एक कुटिल
भावना उदय हुई कि कही भाई साहब एक साल और फेल हो जाएँ, तो मैं उनके बराबर हो जाऊं, फिर वह
किस आधार पर मेरी फजीहत कर सकेंगे, लेकिन मैंने इस कमीने विचार को दिल से बलपूर्वक निकाल
डाला। आखिर वह मुझे मेरे हित के विचार से ही तो डाँटते हैं। मुझे उस वक्त अप्रिय लगता है अवश्य,
मगर यह शायद उनके उपदेशों का ही असर हो कि मैं दनादन पास होता जाता हूँ और इतने अच्छे नम्बरों
से।

अबकी भाई साहब बहुत-कुछ नर्म पड़ गए थे। कई बार मुझे डाँटने का अवसर पाकर भी उन्होंने धीरज से
काम लिया। शायद अब वह खुद समझने लगे थे कि मुझे डाँटने का अधिकार उन्हंे नहीं रहा या रहा तो
बहुत कम। मेरी स्वच्छंदता भी बढ़ी। मैं उनकी सहिष्णुता का अनुचित लाभ उठाने लगा। मुझे कुछ ऐसी
धारणा हुई कि मैं तो पास ही हो जाऊंगा, पढूँ या न पढूँ मेरी तकदीर बलवान है, इसलिए भाई साहब के
डर से जो थोड़ा-बहुत पढ़ लिया करता था, वह भी बंद हुआ। मुझे कनकौए उड़ाने का नया शौक पैदा हो
गया था और अब सारा समय पतंगबाजी ही की भेंट होता था, फिर भी मैं भाई साहब का अदब करता था,
और उनकी नज़र बचाकर कनकौए उड़ाता था। मांझा देना, कन्ने बांधना, पतंग टूर्नामेंट की तैयारियां आदि
समस्याएँ अब गुप्त रूप से हल की जाती थीं। भाई साहब को यह संदेह न करने देना चाहता था कि
उनका सम्मान और लिहाज मेरी नज़रांे से कम हो गया है।

एक दिन संध्या समय हाॅस्टल से दूर मैं एक कनकौआ लूटने बेतहाशा दौड़ा जा रहा था। आँखें आसमान
की ओर थीं और मन उस आकाशगामी पथिक की ओर, जो मंद गति से झूमता पतन की ओर चला जा
रहा था, मानो कोई आत्मा स्वर्ग से निकलकर विरक्त मन से नए संस्कार ग्रहण करने जा रही हो। बालकों
की एक पूरी सेना लग्गे और झाड़दार बांस लिये उनका स्वागत करने को दौड़ी आ रही थी। किसी को
अपने आगे-पीछे की खबर न थी। सभी मानो उस पतंग के साथ ही आकाश में उड़ रहे थे, जहाँ सब कुछ
समतल है, न मोटरकारें है, न ट्राम, न गाडि़याँ।

सहसा भाई साहब से मेरी मुठभेड़ हो गई, जो शायद बाजार से लौट रहे थे। उन्होने वही मेरा हाथ पकड़
लिया और उग्रभाव से बोले-इन बाजारी लड़कों के साथ धेले के कनकौए के लिए दौड़ते तुम्हें शर्म नहीं
आती? तुम्हें इसका भी कुछ लिहाज नहीं कि अब नीची जमात में नहीं हो, बल्कि आठवीं जमात में आ गये
हो और मुझसे केवल एक दरजा नीचे हो। आखिर आदमी को कुछ तो अपनी पोजीशन का ख्याल करना
चाहिए। एक जमाना था कि कि लोग आठवां दरजा पास करके नायब तहसीलदार हो जाते थे। मैं कितने
ही मिडलचियों को जानता हूँ, जो आज अव्वल दरजे के डिप्टी मजिस्ट्रेट या सुपरिटेंडेंट है। कितने ही
आठवी जमाअत वाले हमारे लीडर और समाचार-पत्रों के सम्पादक हैं। बडे़-बडे़ विद्वान उनकी मातहती में
काम करते हैं और तुम उसी आठवें दरजे में आकर बाजारी लड़कों के साथ कनकौए के लिए दौड़ रहे हो।
मुझे तुम्हारी इस कमअकली पर दुख होता है। तुम जहीन हो, इसमें शक नहीं लेकिन वह जेहन किस काम
का, जो हमारे आत्मगौरव की हत्या कर डाले? तुम अपने दिल में समझते होगे, मैं भाई साहब से महज एक
दर्जा नीचे हूँ और अब उन्हे मुझको कुछ कहने का हक नहीं है लेकिन यह तुम्हारी गलती है। मैं तुमसे पाँच
साल बड़ा हूँ और चाहे आज तुम मेरी ही जमाअत में आ जाओ और परीक्षकों का यही हाल है, तो निस्संदेह
अगले साल तुम मेरे समकक्ष हो जाओगे और शायद एक साल बाद तुम मुझसे आगे निकल जाओ-लेकिन
मुझमें और जो पाँच साल का अन्तर है, उसे तुम क्या, खुदा भी नहीं मिटा सकता। मैं तुमसे पाँच साल बड़ा
हूँ और हमेशा रहूंगा। मुझे दुनिया का और जिन्दगी का जो तजु़रबा है, तुम उसकी बराबरी नहीं कर सकते,
चाहे तुम एम. ए., डी. फिल. और डी. लिट. ही क्यांे न हो जाओ। समझ किताबें पढ़ने से नहीं आती है।
हमारी अम्मा ने कोई दरजा पास नहीं किया, और दादा भी शायद पांचवी जमात के आगे नहीं गये, लेकिन
हम दोनों चाहे सारी दुनिया की विद्या पढ़ लें, अम्मा और दादा को हमें समझाने और सुधारने का अधिकार
हमेशा रहेगा। केवल इसलिए नहीं कि वे हमारे जन्मदाता हैं, बल्कि इसलिए कि उन्हें दुनिया का हमसे
ज्यादा तजुरबा है और रहेगा। अमेरिका में किस जरह कि राज्य-व्यवस्था है और आठवे हेनरी ने कितने
विवाह किये और आकाश में कितने नक्षत्र है, यह बाते चाहे उन्हे न मालूम हो, लेकिन हजारों ऐसी बाते हैं,
जिनका ज्ञान उन्हंे हमसे और तुमसे ज्यादा है।

दैव न करें, आज मैं बीमार हो जाऊं, तो तुम्हारे हाथ-पाँव फूल जाएंगें। दादा को तार देने के सिवा तुम्हंे
और कुछ न सूझेगा लेकिन तुम्हारी जगह पर दादा हो, तो किसी को तार न दें, न घबराएं, न बदहवास
हों। पहले खुद मरज पहचानकर इलाज करेंगे, उसमें सफल न हुए, तो किसी डाॅक्टर को बुलायंेगे। बीमारी
तो खैर बड़ी चीज़ है। हम-तुम तो इतना भी नहीं जानते कि महीने-भर का महीने-भर कैसे चले। जो कुछ
दादा भेजते हैं, उसे हम बीस-बाईस तक खर्च कर डालते हंै और पैसे-पैसे को मोहताज हो जाते हैं।
नाश्ता बंद हो जाता है, धोबी और नाई से मुँह चुराने लगते हैं लेकिन जितना आज हम और तुम खर्च कर
रहे हैं, उसके आधे में दादा ने अपनी उम्र का बड़ा भाग इज्जत और नेकनामी के साथ निभाया है और एक
कुटुम्ब का पालन किया है, जिसमंे सब मिलाकर नौ आदमी थे। अपने हेडमास्टर साहब ही को देखो। एम.
ए. हैं कि नहीं, और यहा के एम. ए. नहीं, आॅक्सफोर्ड के। एक हजार रुपये पाते हैं, लेकिन उनके घर
इंतजाम कौन करता है? उनकी बूढ़ी माँ। हेडमास्टर साहब की डिग्री यहाँ बेकार हो गई। पहले खुद घर
का इंतजाम करते थे। खर्च पूरा न पड़ता था। करजदार रहते थे। जब से उनकी माताजी ने प्रबंध अपने
हाथ मे ले लिया है, जैसे घर में लक्ष्मी आ गई है। तो भाईजान, यह जरूर दिल से निकाल डालो कि तुम
मेरे समीप आ गये हो और अब स्वतंत्र हो। मेरे देखते तुम बेराह नहीं चल पाओगे। अगर तुम यों न मानोगे,
तो मैं (थप्पड़ दिखाकर) इसका प्रयोग भी कर सकता हूँ। मैं जानता हूँ, तुम्हें मेरी बातें जहर लग रही है।
मैं उनकी इस नई युक्ति से नतमस्तक हो गया। मुझे आज सचमुच अपनी लघुता का अनुभव हुआ और भाई
साहब के प्रति मेरे तम में श्रद्धा उत्पन्न हुई। मैंने सजल आँखों से कहा-हरगिज नहीं। आप जो कुछ फरमा
रहे हंै, वह बिलकुल सच है और आपको कहने का अधिकार है।

भाई साहब ने मुझे गले लगा लिया और बोले-कनकौए उड़ान को मना नहीं करता। मेरा जी भी ललचाता
है, लेकिन क्या करूँ, खुद बेराह चलूं तो तुम्हारी रक्षा कैसे करूँ? यह कत्र्तव्य भी तो मेरे सिर पर है।
संयोग से उसी वक्त एक कटा हुआ कनकौआ हमारे ऊपर से गुजरा। उसकी डोर लटक रही थी। लड़कों
का एक गोल पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था। भाई साहब लंबे हैं ही, उछलकर उसकी डोर पकड़ ली और
बेतहाशा हाॅस्टल की तरफ दौड़े। मैं पीछे-पीछे दौड़ रहा था।

(दिसंबर 2014 अंक में प्रकाशित)

सुखवाड़ा का भाई पर केंद्रित अंक

सुखवाड़ा दिस 2014 का भाई पर केंद्रित अंक प्रस्तुत है। कृपया इसे पढ़े और अपनों से शेयर भी करे. अंक पर आपकी प्रतिक्रिया हमारा मनोबल बढाती है। हमें आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा। सुखवाडा  जनवरी 2015 का अंक भोज के साहित्यिक -सांस्कृतिक अवदान पर केंद्रित है। सादर।

Friday, March 14, 2014

माय

मक्या की  पेरी  रोटी प
भेदरा की चटनीसी माय।

गोबर पानी कपड़ा-लत्ता
झाड़ू पोछा जसी  माय।
टूटी फूटी खाट प सुवय
हाथ सिराना लेख माय।

आधी सुवय आधी जागय
हर आरा प उठय माय।
सांझ सबेरे पनघट पानी
सांझ  सबेरे चूल्हा माय।

सबक्ख अच्छो खाना देय
रूखो  सूखो खाय  माय।
घर म जब बीमार है कुई
डाक्टर  नर्स  दाई माय।

घर अउर खेत दुही जघा
दिन भर खुटती रव्हय माय।
गाय बइल अउर बेटा-बेटी
सबकी  चिंता करय माय।

घट्टी दापका,कोदो कुटकी
धान जसी  पिसाय माय।
दिन भर भी फुर्सत नी ओख
अउत का पाछ फिरय माय।

बेटा- बेटी  साई  खेत म
एक-एक दाना बुवय माय।
नींदय खुरपय फसल देखय
देख- देख  हर्षावय माय।

काटय-उठावय,दावन करय
दुख भूसा सी उड़ावय माय।

-वल्लभ डोंगरे

श्रीमती पार्वती बाई देशमुख को नागपुर 'विदर्भ विभूषण'

नागपुर। निरक्षर पर अक्षर के प्रति आदर भाव के चलते 70 वर्षीया श्रीमती पार्वतीबाई देशमुख द्वारा लगभग 60-70 कविताएं रची गई जिसे शाम टीवी चेनल द्वारा अपने टीवी कार्यक्रम में विशेष रूप से प्रसारित किया गया। श्रीमती देशमुख अपने गांव में सामान्य महिला की तरह जिंदगी गुजारते हुए अपनी रचनाधर्मिता के कारण पत्र-पत्रिकाओं एवं टीवी पर छा गई।

उल्लेखनीय है इसके पूर्व महाराष्ट्र के जलगांव की ही निरक्षर कवयित्री बहना बाई अपनी रचनाधर्मिता के कारण ही लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर पाने में  सफल हुई थी।

हाल ही में नागपुर में आयोजित पुस्तक मेले में अपरिहार्य कारणों से श्री रस्किन बांड के उपस्थित न हो पाने पर श्रीमती पार्वती बाई देशमुख को आमंत्रित कर उनका सम्मान एवं सत्कार किया गया था। श्रीमती देशमुख की रचनाधर्मिता परिवार में भी झलकती दिखाई देती है।

उन्हीं का पुत्र श्री सुरेश देशमुख आज समाज का गौरव है तथा समाज के सम्मानजनक पद पर रहते हुए समाज सेवा में रत है एवं अखिल भारतीय स्तर पर कई महत्वपूर्ण काम जैसे राजा भोज की मूर्ति स्थापना,केलेण्डर का प्रकाषन, समाज साहित्य की सीडी तैयार कर साहित्य प्रेमियों को उपलब्ध कराने में गहरी रूचि लेते है। पेशे से इंजीनियर श्री सुरेश देशमुख का साहित्य के प्रति रूझान का मुख्य कारण उनकी अपनी मां का साहित्य के प्रति गहरा अनुराग ही है।

श्री वल्लभ डोंगरे द्वारा प्रकाशित किताब पवारी परम्पराएं और प्रथाएं की 20 प्रति आरक्षित कराकर श्री देशमुख द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से समाज साहित्य के संरक्षण एवं संवर्द्धन में सहयोग ही किया गया है। इस तरह श्री देशमुख अपनी मां के नक्शेकदम पर चलकर समाज और समाज साहित्य की सेवा ही कर रहे हैं। श्रीमती पार्वती बाई देशमुख के कार्य से उनके घर-परिवार के सदस्यों के साथ-साथ सम्पूर्ण पवार समाज भी गौरवांवित हुआ है। एक निरक्षर का अक्षर कार्य सदैव दूसरों को प्रेरणा देता रहेगा।

श्रीमती पार्वती बाई देशमुख की तीन कविताएं

मला लागली भूक
धीर धरू कोठवरी/माझ्या मायेचं घर/पाण्याचा वाटेवरी/मला लागली भूक/जाऊ कोणच्या डोंगरी/पित्याच्या बगीच्यात/आल्या पाठा उंबरी.

सखी मी जोड़ते
आईच्या आडून/करे येण जाण/मोगन्या खालून/सखी मी जोड़ते/तुझ्यावर जीव/दिसणार कशी?

बाई दरून दिसते
बाई दरून दिसते/माहेरची गं पंढरी/तिथं पित्यानं गं माझ्या/आंबा लावला षंदरी/माझ्या माहेरचा गायी/माझे माय बाप आहे/विट्ठल रखुबाई.

श्रीमती पार्वती बाई देशमुख को मिले सम्मान व विभिन्न गतिविधियों में उनकी सक्रियता के साक्ष्य

पार्वती बाई देशमुख को मिले सम्मान-

  • मायके का नाम-गोपिका। उम्र-लगभग 71 वर्ष, गांव-बोरी
  • 29 जन 2013 को सकाळ समाचार पत्र में कव्हर कहानी प्रकाषित।
  • 20 जन 2013 को सकाळ द्वारा पुनः पूरक जानकारी प्रकाषित।
  • 4 फर 2013 को बुक व लिटरेचर महोत्सव में नागनुर महानगर पालिका व व्ही जेएमटी जेजेपी कालेज द्वारा संयुक्त रूप से सम्मानित।
  • 13 फर 2013 को टेलीविजन पर कार्यक्रम प्रसारित।
  • 14 फर 2013 बुक व लिटरेचर महोत्सव में महापौर नागपुर द्वारा हार्दिक सत्कार।
  • 9 मार्च 2013 को सकाळ द्वारा दशकपूर्ति अवसर पर 10 समाजसेवियों का सम्मान, जिसमें श्रीमती पार्वती बाई भी सम्मानित।
  • 10 मार्च 2013 को सेवाव्रती सम्मान से सम्मानित।
  • 29 दिस. 2013 को  विदर्भ भूषण सम्मान से सम्मानित।

समाज और संसार को सहयोग

 एक समाज सदस्य को किया गया सहयोग उस सदस्य विशेष तक सीमित न रहकर वह परिवार, समुदाय,  समाज, राष्ट्र व संसार तक पहुंचता है। आजादी की जंग में गांधीजी को किया गया सहयोग पूरे देश को आजाद कराने में काम आता है। कण-कण में भगवान होने की बात स्वीकारने और मानने वाले देश में व्यक्ति में भगवान देखने और स्वीकारने की हिम्मत जुटाने की अभी और जरूरत है। पत्थर को भगवान मानने में हमें कोई दिक्कत महसूस नहीं होती पर जब किसी इंसान को भगवान मानने की बात आती है तो हमारा अंहकार आड़े आ जाता है। किसी की अच्छाइयां भी हमें हजम नहीं हो पाती।

किसी का बिना दहेज लिए विवाह करना भी हमें फूटी आंखों नहीं सुहाता क्योंकि वैसा साहस दिखा पाने का या तो हम अवसर खो चुके होते हैं या फिर वैसा साहस दिखाने का हम में दमखम नहीं होता हैं, और वैसा साहस दिखाने के स्थान पर उसका विरोध करना हमें ज्यादा आसान और फायदेमंद लगता है। इसी तरह एक समाज सदस्य को किया गया असहयोग उस सदस्य विषेश तक सीमित न रहकर वह परिवार, समुदाय, समाज, राष्ट्र व संसार के लिए असहयोग हो जाता है और इससे केवल उस सदस्य विशेष का ही नहीं अपितु पूरे परिवार, पूरे समुदाय, पूरे समाज, पूरे राष्ट्र और पूरे संसार का विकास अवरूद्ध हो जाता है। जिस तरह व्यक्ति-व्यक्ति की आय जुड़कर राष्ट्र की आय बनती है, उसी तरह व्यक्ति-व्यक्ति का कार्य जुड़कर समाज का कार्य बनता है। वसुधैव कुटुम्बकम् की संस्कृति वाले समाज और देश में कुटुम्ब के लोगों को ही सहयोग न करके हम वसुधैव कुटुम्बकम् की महान् संस्कृति को केवल बातों के बल पर न तो जिंदा रख सकते हैं न ही आगे बढ़ा सकते हैं।

बोहरा समाज में अपने समाज सदस्य को हर तरह का सहयोग किया जाता है ताकि वह समाज की मुख्य धारा से जुड सके। बोहरा समाज में अपने समाज सदस्य को दुकान खोलने हेतु न केवल आर्थिक सहयोग दिया जाता है अपितु उसी की दुकान से सामान खरीदने हेतु समाज सदस्यों को फरमान भी जारी किया जाता है। इस तरह लिए गए निर्णय का हर सदस्य सम्मान के साथ पालन करता है। यही कारण है बोहरा समाज में सर्वत्र सम्पन्नता नजर आती है। भारत के हर शहर में बोहरा समाज के अतिथि गृह बने हुए मिल जायेंगे जिनमें बोहरा समाज के हर वर्ग के लोग जाकर रूक सकते हैं। इन अतिथि गृहों में निःशुल्क भोजन एवं आवास की व्यवस्था होती है।

पवार समाज सदस्यों में परस्पर प्रेम और आदर भावना की बेहद कमी होती है। यही कारण है मू अउर मरी माय मंढा म नी समाय की तर्ज पर वे किसी में भी सपात नहीं पाते और अंततः अपने झूठे अहम् एवं अंहकार में अपने साथ-साथ समाज का भी अहित ही करते हैं। पवारों में एक कमी और उल्लेखनीय है वह यह कि वे अपने समाज सदस्य की प्रतिभा को स्वीकारने और सम्मान देने में बेहद कृपण हैं। वे उसे स्वीकारने और सम्मानित करने की अपेक्षा उसकी टांग खींचने और उसे अपमानित करने में धरती पाताल एक करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखते। यही कारण है समाज की विकास और उन्नति के षिखर पर पहुंचने की कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह उनकी अज्ञानता और अनपढ़ता ही है पर इसे वे कभी भी स्वीकारना पसंद नहीं करते। यह हठ और जिद ही पवारों का असली दुश्मन है जिसे और कोई नहीं अपितु संबंधित व्यक्ति स्वयं ही मार सकता है।      
       
हम अपनों से सीखने की बजाय उसके किए कराए पर पानी फेरने में ज्यादा रूचि लेते है। यह हद दर्जे का ईष्या, द्वेश करके हम अपने ही समाज के विकास एवं उन्नति के मार्ग में स्वयं सबसे बड़े रोड़े एवं बाधक बन बैठे हैं। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना का दुनिया को संदेश देने वाले देश में ही घर परिवार में परस्पर प्रेम नहीं है ऐसे में पूरी वसुधा को कुटुम्ब मानने वाली उनकी बात बेमानी ही लगती है। पवारों का बेवकूफी भरा पराक्रम बंदर के हाथों उस्तरा लगने जैसा है।यही करण है पढ़े लिखे पवार भी पवार कम गंवार ज्यादा लगते है। उनके किसी भी उपक्रम में परिपक्वता या सम्पूर्णता जैसी कोई बात नजर नहीं आती है। उनका हर कदम अधूरेपन का अधिक और सम्पूर्णता का सीमित आभास ही कराता है। उन्हें अब यह समझना ही होगा कि समाज सदस्यों को किया गया सहयोग ही समाज के विकास एवं उन्नति की नींव रखने में सहायक होगा और उन्हें किया गया हर असहयोग समाज की कब्र खोदने में ही मदद करेगा। अब निर्णय हमें ही करना है कि हम अपने समाज सदस्य को अपेक्षित सहयोग करके समाज को विकास और उन्नति के पथ पर अग्रसर करना चाहते हैं या अपने ही समाज सदस्य को असहयोग करके हम अपने ही समाज के विकास और उन्नति को अवरूद्ध करना चाहते हैं।
                                                                                                                                -  वल्लभ डोंगरे

समाज साहित्य के माध्यम से जनजागृति लाता सतपुड़ा संस्कृति संस्थान

शिक्षा समाज की आंख होती है। शिक्षा से व्यक्तित्व परिस्कृत होता है। पर यदि समाज शिक्षा विहीन हो तब उसकी दीनहीनता का पता लगाना कठिन नहीं होता। एक बार एक समाज सेवी डॉक्टर समाज सुधार पर भाषण दे रहा था। वह बता रहा था कि दारू पीना शरीर के लिए कितना नुकसानदायक होता है। शराब की सारी बुराइयों को बता चुकने के बाद डॉक्टर ने दो कांच के ग्लास मॅंगाए। एक में पानी व दूसरे में शराब भरने के बाद उनमें केचुए डाल दिए गए। थोड़ी देर बाद शराब के ग्लास वाला केंचुआ मर गया व पानी के ग्लास वाला केंचुआ जिंदा निकला। इस पर डॉक्टर ने उपस्थित लोगों से पूछा-इससे आप क्या समझते हैं? तो एक शराबी बोला- दारू पीने से पेट के कीड़े मर जाते हैं। यदि गंभीर शिक्षा देने पर भी हम इस तरह अगंभीर ही बने रहे तो कभी भी जीवन में कुछ सीख नहीं पायेंगे।

पंचतंत्र में एक कहानी का उल्लेख है। कहानी  चिड़िया और बंदर पर केन्द्रित है। ठंड की ऋतु में बंदर पेड़ के नीचे बैठा ठिठुर रहा था, जिसे देख चिड़िया बोली-तुम्हारे तो इंसानों की तरह हाथ-पैर हैं फिर भी अपना कोई घर नहीं बना पाए। मेरे तो हाथ भी नहीं है फिर भी मैंने अपना घर बना लिया है। चिड़िया की बातें सुनकर बंदर को गुस्सा आ गया। वह पेड़ पर चढ़ा और चिड़िया के घोसले को नोंच कर जमीन पर फेंक दिया। चिड़िया के अंडे-बच्चे मर गए और चिड़िया पल भर में घरविहीन हो गई। किसी को शिक्षा देने के पहले यह जानना जरूरी है कि वह पात्र है भी या नहीं। जिस तरह कुपात्र को दिया गया दान दान नहीं कहलाता उसी तरह कुपात्र को दी गई शिक्षा शिक्षा नहीं कहलाती।

कुपात्र को दी गई शिक्षा के अपने खतरे हैं। परन्तु इन खतरों को उठाए बिना समाज को षिक्षित कर पाना संभव भी नहीं है। किसी भी व्यक्ति के जीवन में दो विकल्प रहते हैं। एक विकल्प उसे सामान्य व दूसरा विकल्प उसे महान बनाता है। दूसरा विकल्प चुनने वाले लोग विरले ही होते हैं। इसलिए महान बनने वाले लोग भी विरले ही होते हैं। दूसरा विकल्प चुनने वाले हट कर करने और हटकर देने वाले होते हैं इसलिए समाज इन्हें सदैव याद रखता है।

एक जापानी कम्पनी ने अपने दो आदमियों को अफ्रीका में जूतों की बिक्री हेतु बाजार की संभावनाओं को तलाषने हेतु भेजा। एक आदमी ने तीन दिन में कम्पनी को रिपोर्ट भेजी कि यहां कोई जूते ही नहीं पहनता, अतः यहां जूतों की बिक्री की कल्पना करना भी बेकार है।दूसरे आदमी ने एक माह तक बाजार की संभावनाओं को लेकर अपनी तलाष जारी रखी और अंततः रिपोर्ट भेजी कि यहां कोई जूते नहीं पहनता अतः यहां तो बाजार ही बाजार है। दूसरे आदमी की तरह सतपुड़ा संस्कृति संस्थान,भोपाल  ने भी अपना कार्य जारी रखा और अशिक्षित और अनपढ़ पवारों में समाज साहित्य के माध्यम से जनजागृति लाने का प्रयास जारी रखा। जो कार्य कोई संगठन नहीं कर सका उस कार्य को करने का बीड़ा उठाकर सतपुड़ा संस्कृति संस्थान ने जापानी कम्पनी के दूसरे व्यक्ति की तरह ही धैर्य का परिचय दिया है। 21 वीं सदी में भी इस समाज में करने को इतना कुछ है कि एक पूरी की पूरी सदी इसके विकास और उन्नति के लिए कम पड़ जाएगी।

पिछले दिनों मंडीदीप श्रीराम मंदिर में प्राणप्रतिष्ठा कार्यक्रम व भंडारे का आयोजन था जिसमें सहभागिता करने हेतु 15,000 से ज्यादा समाज सदस्यों को एसएमएस के माध्यम से अनुरोध किया गया था जिसमें से 15 लोगों ने भी जवाब देना उचित नहीं समझा। राजधानी में ही समाज के लगभग 2000 सदस्य हैं जिनमें से 200 सदस्यों का भी कार्यक्रम में नहीं पहुंचना हमारी घृणित सोच और गंदी मानसिकता का प्रतीक है। इसी तरह विवाह योग्य सदस्यों की जानकारी संकलित करने हेतु 200 लोगों को फोन करने पर मात्र 1 या 2 सदस्यों से जानकारी प्राप्त हो पाती है। इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि जानकारी संकलित करना कितना दुरूह कार्य है। सुखवाड़ा ई मासिक पत्रिका लोग नेट से डाउनलोड करके उसमें संकलित जानकारी के आधार पर अपना स्वार्थ साध लेते हैं पर कभी धन्यवाद देने की जहमत नहीं उठाते। 24 अक्टूबर को पूरे विश्व में माफी दिवस मनाया जाता है। जैन धर्म में तो एक क्षमा पर्व ही है। हम कम से कम साल में एक बार इस तरह की सुविधा मुहैया कराने वालों के प्रति अपनी कृतज्ञता तो ज्ञापित कर ही सकते हैं। पर हममें ये संस्कार ही नहीं है वरना इस तरह के कार्य करने वालों के प्रति सम्मान और प्रेम की गंगा बहाने में कोई भी समाज कोताही नहीं बरतता। आज भी समाज संगठनों के निमंत्रण पत्रों में इस तरह के लोगों के लिए स्थान सुरक्षित न रखना एक तरह से समाज की सड़ी गली मानसिकता का ही प्रमाण है।

- वल्लभ डोंगरे 

Sunday, February 23, 2014

छोटे-छोटे प्रयासों से बड़ी-बड़ी खुशियां बांटता जीवन : वल्लभ डोंगरे

वल्लभ डोंगरे
सन् 1984 की बात है। श्रीमती इंदिरा गाधी की हत्या हो जाने से पूरा शहर आगजनी, हत्या और मारकाट में डूबा था। उन दिनों मैं भोपाल में ही था। 10-15 दिनों तक कर्फ्यू लगा था। खाने-पीने का सामान नहीं था। घर परिवार और गांव के लोग चिंतित थे। उसी वर्ष भोपाल में गैस त्रासदी भी हुई। हजारों लोगों की जाने गई। इसने पूरे भोपाल को झकझोर कर रख दिया। गैस त्रासदी के बाद लूटपाट, अत्याचार अनाचार की घटनाएं बढ़ गई जिससे पूरे शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया। इस समय भी 10-15 दिन तक लोगों को घर से बाहर निकलने पर प्रतिबंध था। मृतक संख्या हजारों में होने से घर परिवार और गाव के लोग घबरा गए। उन दिनों फोन एवं मोबाइल की सुविधा नही थी। कफ्र्यू समाप्त होते ही अपने क्षे़त्र से लोग भोपाल अपने परिजनों की खोज में आ गए। कुछ लोग अपनों की खोज में मुझ तक भी पहुच गए और अपने परिजनों के बारे में जानकारी लेने लगे। मैं उनके किसी परिजन को नहीं जानता था। उस दिन पहली बार मुझे आभास हुआ कि काश मेरे पास इनके परिजनों के नाम-पते होते तो मैं पराए परदेश में इनके काम आ जाता। उसी दिन मैंने अपने मन में संकल्प लिया था कि मैं भोपाल में रहने वाले समाज सदस्यों के नाम पते एकत्रित कर सभी को उपलब्ध कराऊंगा ताकि सुख-दुख के अवसर पर हम एक-दूसरे के काम आ सके।

आप जहां भी है, जैसे भी हैं, वहीं रहकर अपने जीवन को सार्थकता प्रदान कर नई ऊंचाइयाँ दे सकते हैं। इसके लिए आपको किसी बड़े पद पर रहने या किसी संस्था-संगठन से जुड़े रहने की भी जरूरत नहीं है। जरूरत है तो केवल जज्बे,जोष और जुनून की जिसके बल पर आप वह कर सकते हैं जो बड़े पद पर रहकर भी नहीं किया जा सकता या किसी संस्था-संगठन से जुड़े रहकर भी नहीं किया जा सकता। जानिए, ऐसी ही कुछ छोटी-छोटी बातें जो लोगों को बड़ी-बड़ी खुशियां देकर आपके पूरे व्यक्तित्व को ही साधारण के स्थान पर असाधारण बना देती हैं।

सन् 1970 के दषक में गाॅवों में छुआछूत की भावना चरम पर थी। गाॅव के लोहार की मृत्यु हो जाने पर गाॅव के लोग छुआछूत के चलते उसके अंतिम संस्कार को तैयार नहीं थे। लोहार के छोटे-छोटे बच्चों को देख पिताजी द्वारा लोगों से अनुरोध किया गया पर इसका किसी पर कोई असर न देख उन्होंने स्वयं बैलगाड़ी जोतकर व उसमें इंधन भरकर ष्मषान पहुॅचाया और उसी गाड़ी में मृतक लोहार के शव को लादकर ले जाकर अकेले ही अंतिम संस्कार कर दिया गया। इसी तरह एक बार नागपंचमी पर सांईखेड़ा का वृद्ध ढीमर लाही चने बाॅटने व जाल दरवाजे पर लगाने आया हुआ था। इसके बदले में गाॅव के लोग उसे अनाज दे दिया करते थे। लौटते वक्त वह रास्ते में गिरकर बेहोष हो गया एवं वहीं स्वर्ग सिधार गया।पिताजी द्वारा षीघ्र ही सांई्रखेड़ा खबर की गई पर कोई उस षव को लेने नहीं आया। रात में शव को कोई जानवर नुकसान न पहुॅंचा पाएं इस हेतु पिताजी द्वारा उसकी रखवाली के लिए लोगों से विनती की पर छुआछूत के चलते कोई भी इसके लिए तैयार नहीं हुआ। पिताजी द्वारा अकेले ही उस शव की रात भर रखवाली की गई और अगले दिन अकेले ही उसका अंतिम संस्कार करना पड़ा।

   गाॅव में उन दिनों रात्रि विश्राम के लिए कोई साधन नहीं हुआ करता था। ऐसे  में माँ -पिताजी अपने घर में ही दुकानदार, वेैद्य, खरीदार या राहगीरों को रात्रि विश्राम की सुविधा मुहैया करा दिया करते थे। खेत से आने पर माॅं अपने लिए जो भोजन पकाती वह ही रात्रि विश्राम कर रहे लोगों को खिलाती थी। हमारा काम उनको भोजन परोसने का होता था। इस तरह कई सालों तक यह सिलसिला चलता रहा। इस तरह अनजान व राहगीरों को षरण देना भी लोगों को भाता नहीं था और तरह-तरह की बातें की जाती थी। बचपन से ही मैं यह सीख गया था कि लोग न तो स्वयं अच्छा काम करते हैं न ही दूसरे द्वारा किया जा रहा अच्छा काम उन्हें अच्छा लगता है।

मार्च से मई तक गर्मी के तीन माह गाॅव के पालतू जानवरों का पिताजीे हमारे कुएं पर पानी पिलाने की व्यवस्था करते थे। अमराई की घनी छाॅव में पूरी दोपहरी गाॅव के सैकड़ों पषु सुस्ताया करते थे। हम पूरी दोपहरी उनपर नजर रखा करते थे और आम के पेड़ों पर डाब-डुबेली खेला करते थे। जानवरों को पानी पिलाने पर भी लोगों को अच्छा नहीं लगता था। लोग कहते थे हम पिलायेंगे पानी और स्वयं कोई व्यवस्था नहीं कर पाते थे। आखिरकार, हमें ही  पानी पिलाने की व्यवस्था करनी पड़ती थी। अपने माता-पिता से विरासत में मिले सेवा के इन संस्कारों को मैंनेे अपने जीवन में भी जारी रखने का प्रयास किया है।

बैतूल पढ़ने आए तो एक कमरे की क्वाटर में भी गाॅव वालों का ताॅता लगा रहता। कभी कोई बीमार है तो कभी कोई । बीमार व्यक्ति के घर से कोई न कोई क्वाटर पर बना ही रहता। हमें अपना, बीमार व्यक्ति और ऐसे लोगों का भी खाना बनाना पड़ता। कई बार पोस्टमार्टम के लिए पहुॅचे गाॅव के 50-60 लोगों का भी खाना बनाना पड़ता था। हम पढ़ाई के साथ यह सब किया कते थेे। शायद ही कोई सप्ताह सुना जाता रहा हो जब हमारे क्वाटर पर कोई मेहमान न रूकता रहा हो।

पढ़ने के साथ-साथ मुझे पत्र लिखने का बेहद शौक था। मैं जब भी पत्र-पत्रिकाओं में कोई विज्ञापन देखता तो अपने परिचितों को पत्र के माध्यम से इसकी सूचना दे दिया करता था और वे आवेदन कर दिया करते थे। इस तरह गाॅव व शहर में रह रहे कई समाज सदस्य इससे लाभांवित हुए और आज वे कहीं न कहीं नौकरी कर रहे है। पत्र का मैंने विभिन्न कामों के लिए उपयोग किया। अपने घर से दूर रह रहे मित्रों को पत्र भेजकर व उनका मनोबल बढ़ाकर उनका दिल जीता। पोस्टकार्ड/जवाबी पोस्टकार्ड के माध्यम से फोन नं. व पते की जानकारी संकलित की गई। पोस्ट कार्ड का उपयोग विवाह योग्य सदस्यों की जानकारी संकलित करने में भी खूब किया गया। मैं एक बार में 1000-1000 पोस्ट कार्ड खरीदता था। पोस्ट आफिस वाले मुझे व्यक्तिगत रूप से जानने लगे थे। किसी के घर डाक आए न आए मेरे घर रोज डाक जरूर आया करती थी।

पोस्ट कार्ड का उपयोग मैंने विवाह पर बधाई देने, बड़ों को तीज त्योहार व उनकी विवाह वषगाॅठ पर बधाई देने तथा बच्चों को उनके जन्मदिन पर बधाई देने में भी खूब किया। पोस्ट कार्ड पर दी जाने वाली बधाई का इतना व्यापक असर होता कि हर कोई उसे पढ़ता और कार्ड एक हाथ से दूसरे हाथ गुजरकर अंततः एलबम के प्रथम फ्लेप पर स्थान पाता। जन्मदिन पर प्रेषित बधाई भरा पोस्टकार्ड बच्चे अपनी कक्षा के बच्चों को दिखाने ले जाते और वह कार्ड पूरी कक्षा में बड़े चाव से पढ़ा जाता। अपनी खुषी दूसरों में बाॅटने का सलीका मैंने इन्हीं बच्चों से सीखा। सुख-दुख के प्रत्येक अवसर पर व्यक्तिषः उपस्थित न रहकर पोस्टकार्ड के जरिए मेरे द्वारा अपनी अनुपस्थिति को भी सार्थक उपस्थिति में परिणत करने का प्रयास किया जाता रहा। मेरा कार्ड उनके लिए मेरी उपस्थिति बने सदैव यही प्रयास किया जाता रहा। और होता भी यही रहा कि मैं अपने विचारों को पोस्ट कार्ड के जरिए प्रेषित करता और वे सबके हाथों से गुजरते हुए उनके मन-मस्तिष्क तक पहुॅच जाते।

एक बार एक मैडम अपनी दो-तीन साल की बिटिया के साथ अपने पति से दूर दूसरे शहर में रह रही थी। उन दिनों पति-पत्नी के बीच संवाद का जरिया केवल पत्र ही था। फोन व मोबाइल का प्रचलन नहीं था। उनकी बेटी बोली-मम्मा, हर कोई आपको ही पत्र भेजता है मुझे तो कोई भेजता ही नहीं। और ऐसा कहकर वह बड़ी मायूस और उदास हो गई। श्रीमती के माध्यम से मुझे पता चला तो मैंने मेरी श्रीमती के माध्यम से उसका पता ज्ञात किया और उस बिटिया के नाम पत्र लिख दिया। अपने नाम का पहला खत पाकर वह इतनी अभिभूत हुई कि उसके पैर जमीन पर पड़ ही नहीं रहे थे। उसकी खुषी के बारे में जानकर मुझे भी बेहद खुषी हुई और तबसे ऐसे नन्हे-मुन्नों को भी पत्र लिखने का सिलसिला चल पड़ा। इसने मुझे सबका चहेता बना दिया। बच्चे अपने जन्मदिन पर मेरे पत्र का बेसब्री से इंतजार करने लगे।

पत्रों द्वारा न जाने कितने जान-अनजान लोगों को संजीवनी प्राप्त हुई होगी इसकी तो कोई प्रामाणिक जानकारी नही है। परन्तु इन ज्ञात-अज्ञात लोगों द्वारा दी गई दुआओं ने मेरी जिंदगी को काफी खुषनुमा बनाया है। इस संबंध में यही कहा जा सकता है-

          न जाने कौन मेरे हक में दुआ करता है
डूबते को हर बार दरिया उछाल देता है।
सुबह 4-5 बजे घूमने निकलता तो तीज त्योहार पर रास्ते भर सैकड़ांे हस्तलिखितष्बधाई व शुभकामना पत्र बाॅटते चलता। घर के मेन गेट पर मैं उन्हें लगा दिया करता। जब लोगों की नींद खुलती और वे अपना गेट खोलते तो तीज त्योहार पर बधाई व शुभकामना पाकर उनका मन प्रसन्न हो जाता। इस तरह न जाने कितने जान-अनजान लोगों की दुआएं मिलती और दिन खुषी-खुषी बीत जाता।

 पत्र-पत्रिकाओं से जुड़ा होने के कारण बच्चों के साक्षात्कार लेकर प्रकाषित करवाता या उनकी कोई रचना किसी पत्र पत्रिका में प्रकाषित करवा देता जिससे उनकी खुषी का ठिकाना नहीं रहता। वे दिल से मुझे चाहने लगते। कई बच्चों द्वारा आज दिनाॅंक तक उनके प्रकाषित उन कविता-कहानी या साक्षात्कार को सुरक्षित रखा गया है तथा उन्हंे देखकर वे समय-समय पर खुष हो लिया करते हैं।

कार्यालय में सेवारत सैकड़ों अधिकारी-कर्मचारी व उनके परिजनों को उनके जन्मदिन पर बधाई देने का सिलसिला पूरे साल ही जारी रहता। तीज त्योहार पर भी यह सिलसिला जारी रहता। उन्हें पत्र-पत्रिकाओं में लिखने हेतु उकसाता और वे लिखते भी और छपते भी। उन्हंे अपनी छपी रचना का पारिश्रमिक जब मनीआर्डर या चेक के माध्यम से मिलता तो उनकी खुषी का ठिकाना नहीं रहता। इस तरह अपने छोटे-छोटे प्रयासों के माध्यम से लोगों को बड़ी-बड़ी खुषियाॅं देता रहा।

एक बार किसी अनजान बच्चे की 10 वीं कक्षा की मूल अंकसूची बस स्टाप पर पड़ी मिली जहाॅं से इंजीनियरिंग के बच्चे अपनी बस में बैठते थे।उसमें अंकित स्कूल की सील के आधार पर जवाबी पोस्टकार्ड भेजकर संबंधित बच्चे का शाला रिकार्ड में दर्ज पता भेजने का अनुरोध किया गया। पता मिलते ही संबंधित बच्चे को पुनः पत्र भेजकर अंकसूची प्राप्त करने संबंधी अनुरोध किया गया। सुविधा की दृष्टि से पत्र में पता एवं फोन न. दिया गया था ताकि बच्चो को घर ढूॅढने में असुविधा न हो। वह बच्चा आया और अपनी अंकसूची सुरक्षित पाकर दुआएं देते हुए चला गया। आज वह बच्चा इंजीनियर है।

मोहल्ले की सड़क मुख्यतः बारीष के दिनों में पानी से भर जाया करती थी। सभी को आने जाने में परेषानी हुआ करती थी, पर कोई कुछ करना नहीं चाहता था। एक दिन सुबह घूमने के स्थान पर दो घंटे उसकी मरम्मत में देने का विचार आया और फावड़ा तथा तसला लेकर जुट गया। लोग सोकर उठ पाते उसके पूर्व ही सड़क सुविधाजनक रूप से आने जाने के लिए तैयार थी। लोग आते जाते उस अनजान फरिष्ते को दुआएं देते जा रहे थे। उस दिन लगा मानो आज का दिन सार्थक हो गया। पूरे दिन मन प्रसन्न रहा। ऐसे फिर न जाने कितने स्थानों के  के गड्ढे व नालियों की मरम्मत करने का सुख मिला है और लोगो की दुआएं मिली है।

सन् 1984 की बात है। श्रीमती इंदिरा गाधी की हत्या हो जाने से पूरा शहर आगजनी, हत्या और मारकाट में डूबा था। उन दिनों मैं भोपाल में ही था। 10-15 दिनों तक कफ्र्यू लगा था। खाने-पीने का सामान नहीं था। घर परिवार और गाॅव के लोग चिंतित थे। उसी वर्ष भोपाल में गैस त्रासदी भी हुई। हजारों लोगों की जाने गई। इसने पूरे भोपाल को झकझोर कर रख दिया। गैस त्रासदी के बाद लूटपाट ,अत्याचार अनाचार की घटनाएं बढ़ गई जिससे पूरे शहर में कफ्र्यू लगा दिया गया। इस समय भी 10-15 दिन तक लोगों को घर से बाहर निकलने पर प्रतिबंध था। मृतक संख्या हजारों में होने से घर परिवार और गाव के लोग घबरा गए। उन दिनों फोन एवं मोबाइल की सुविधा नही थी। कफ्र्यू समाप्त होते ही अपने क्षे़त्र से लोग भोपाल अपने परिजनों की खोज में आ गए। कुछ लोग अपनों की खोज में मुझ तक भी पहुच गए और अपने परिजनों के बारे में जानकारी लेने लगे। मैं उनके किसी परिजन को नहीं जानता था। उस दिन पहली बार मुझे आभास हुआ कि काष मेरे पास इनके परिजनों के नाम-पते होते तो मेंै पराए परदेष में इनके काम आ जाता। उसी दिन मैंने अपने मन में संकल्प लिया था कि मैं भोपाल में रहने वाले समाज सदस्यों के नाम पते एकत्रित कर सभी को उपलब्ध कराऊंगा ताकि सुख-दुख के अवसर पर हम एक-दूसरे के काम आ सके।

इसी तरह श्री बीजी पवार के देहावसान की सूचना कार्यालय के फोन पर मिली। मैं उनके घर पर पहुॅचा तो पता चला कि उन्होंने तो घर बदल दिया है। मैं और मेरे जैसे कई लोग उनके अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो पाए थे। उसमें कुछ चुनिंदा सदस्य ही पहॅंच पाए थे। इस घटना से मैंें अंदर तक हिल गया और मैंने नाम-पते एकत्रित करने का काम बिना विलम्ब किए प्रारंभ कर दिया। 1985 में ही भोपाल में रह रहे समाज सदस्यों के नाम-पते वाली डायरेक्ट्री के साथ कुछ उपयोगी सामग्री प्रकाषित कर उसे लोगों को उपलब्ध करा दी गई। उसका यह लाभ हुआ कि अपने क्षेत्र से भोपाल आने वाले सदस्य उसे अपने साथ लेकर आते थे।

रोजगार एवं षिक्षा से संबंधित उपयोगी जानकारी होने से बैतूल के हर समाज में उसको काफी सराहा गया था। इसी काम को विस्तार देने की मन में प्रबल इच्छा के चलते मैं गाॅंव गाॅव व शहर-षहर में रह रहे समाज सदस्यों के नाम पते एकत्रित करने लगा और लगभग 15 वर्षों में पूरे भारत भर में रहने वाले समाज सदस्यों के नाम पते एकत्रित कर सन् 2000 के प्रारंभ में ही सम्पर्क शीर्षक से एक डायरेक्ट्री प्रकाषित की जिसमें बैतूल, छिंदवाड़ा, वर्धा,नागपुर ,अमरावती, आदि जिलों के अधिकांष गाॅवों में रह रहे समाज सदस्यों के नाम पते शामिल किए गए थे।

इसके साथ-साथ भारत भर के शहरों में रह रहे व विदेषों में रह रहे समाज सदस्यों के नाम पते भी इसमें शामिल किए गए थे। इसके प्रकाषन से पहली बार लोगों को महसूस हुआ कि समाज के सदस्य न केवल भारत भर में अपितु विदेषों में भी रह रहे हैं। इसके प्रकाषन से लोगों को सुख-दुख में परस्पर सम्पर्क करने में सुविधा होने लगी। उल्लेखनीय है कि इस समय तक समाज सदस्यों के घर फोन की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। विवाह आदि के निमंत्रण पत्र इन प्रकाषित नाम-पते के आधार पर भेजने में लोगों को काफी सुविधा होने लगीे थी। इसके प्रकाषन से हम 20 वीं सदी में ही जागरूक बन सके थे और कुछ न कर पाने के कलंक से बच सके थे अन्यथा एक पूरी की पूरी सदी हमें हमारी निष्क्रियता और आलसीपन के लिए कोसती रहती।

इसके बाद विवाह योग्य सदस्यों की जानकारी वाली पुस्तक जीवनसाथी का प्रकाषन नवम्बर 2000 तक करके समाज के विवाह योग्य सदस्यों के माता-पिता के लिए रिष्तों की इतनी सारी पुस्तक के प्रकाषन से समाज में साहस और हिम्मत की भावना का संचार भी हुआ था। लोग अब पुरातनपंथी सोच से उबरकर नई सोच की ओर बढ़ने लगे थे। इसके प्रकाषन से लोगों को समझ में आने लगा था कि समय के साथ चलने में ही हमारी और हमारे समाज की भलाई है। लोग हिचक छोड़कर अपने घर परिवार के विवाह योग्य सदस्यों की जानकारी देने लगे थे। जिन सदस्यों द्वारा अपने घर परिवार के विवाह योग्य सदस्यों की जानकारी नहीं दी गई थी उनके घर विवाह हेतु कोई रिष्ते नहीं आ पा रहे थे। इस तरह उन्हंे विवाह हेतु काफी इंतजार व परिश्रम करना पड़ा था। उस वर्ष जीवनसाथी के माध्यम से सैकड़ों रिष्ते हुए थे और मेरे घर विवाह के निमंत्रण पत्रों का अम्बार लग गया था।

सन् 2002 तक अधिकांष समाज सदस्यों के घर फोन की सुविधा उपलब्ध हो गई थी। इसे देखते हुए परस्पर सम्पर्क हेतु हॅलो पापा नामक पाॅकेट फोन डायरेक्ट्री प्रकाषित की गई जिसमें पूरे भारत भर व विदेषों में रह रहे समाज सदस्यों के फोन नं संकलित किए गए थे। इसकी लोकप्रियता को देखते हुए वर्ष 2003 में ही इसका दूसरा संस्करण प्रकाषित करना पड़ा था। समाज सदस्य इसे अपने साथ रखने में गौरव का अनुभव करते थे। हॅलो पापा ने गाॅव और शहर के बीच और समाज सदस्यों के बीच की दूरी कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसकी उपयोगिता और सार्थकता के बारे में जानने के लिए एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा। भोपाल में रह रहे सिवनी, पांढुर्णा के देषमुख परिवार के वृद्ध पिताश्री का देहावसान हो गया। उनके रिष्तेदार सिवनी, पांढुर्णा और छिंदवाड़ा में रहते थे। उनके समक्ष उन सबको सूचना देने का संकट उठ खड़ा हुआ। तभी उन्हें याद आया कि उनके पास हॅलो पापा रखी हुई है। वे तत्काल एसटीडी पर गए और उनमें संकलित फोन नम्बर पर अपने रिष्तेदारों को देहावसान की सूचना दे दी। अगले दिन सुबह तक सभी रिष्तेदार अंतिम संस्कार में शामिल हो गए। मैं भी अंतिम संस्कार में उपस्थित था। उस समय श्री देषमुखजी द्वारा सभी समाज सदस्यों को बताया गया कि श्री डोंगरे जी द्वारा प्रकाषित हॅलो पापा के कारण ही आप सब आज अंतिम संस्कार में षामिल हो पाए हैं। उनके इन शब्दों से मुझे लगा जैसे मेरा श्रम सार्थक हो गया और मैं हॅलो पापा के माध्यम से उनके काम आ सका।

इसके पूर्व मैं 3 वर्ष यूनिसेफ ,1 वर्ष यूएनओ व 1 वर्ष यूनेस्को जैसी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं में सेवाएं देता रहा। वहाॅं मानवता की भलाई के लिए काम करते हुए मन में यह विचार आया कि हमारे समाज में भी काफी पिछड़ापन, गरीबी, अज्ञानता और निरक्षरता है, क्यों न अपने समाज के लिए ही अपने स्तर से कुछ सेवा कार्य किया जाएं। अखबारों ,पत्र-पत्रिकाओं में मैंने खूब लिखा और खूब धन भी कमाया पर उसमें वह शांति और सुकून नहीं मिला जो समाज साहित्य के प्रकाषन के बाद मिला। इस तरह मैं समाज के लिए कार्य करने का विचार लेकर समाज के लिए कुछ कर गुजरने की भावना से समाज हित में अपने स्तर से कुछ कार्य करने लगा जिनमें से कुछ के बारे में मैं आपको पूर्व में ही बता चुका हूॅं। यह बात सही है कि किसी संगठन विषेष तक सीमित न रहकर मेरा प्रयास पूरे समाज को समाहित किए हुए है। ऐसा समाज जिसकी कल्पना भारतीय संस्कृति में वसुधैव कुटुम्बकम् के रूप में की गई है।कहने का तात्पर्य यह है कि-क्या चिंता धरती पर छूटी उड़ने को आकाष बहुत है। करने के लिए काम की कमी नहीं है। काम करने के लिए दृष्टि चाहिए।
मै सूरज हूं जिंदगी की रमक छोड़ जाऊंगा 
’गर डूब भी गया तो शफक छोड़ जाऊंगा ।                                                                             -वल्लभ डोंगरे,  संपादक, सुखवाड़ा

सुखवाड़ा का 15 वर्षीय सार्थक सफर

सतपुड़ा संस्कृति संस्थान, भोपाल द्वारा ”सुखवाड़ा” का नियमित प्रकाषन समाज सदस्यों के सुख-दुख को परस्पर एक दूसरे से बांटने के उद्देष्य से दिसम्बर 1999 से प्रारंभ किया गया था। और सुखवाड़ा 15 वर्षों से अपना कत्र्तव्य बखूबी निभाता आ रहा है।

गाॅव गाॅव व शहर शहर में इसके अंकों का पाठकों को बड़ी बेसब्री से इंतजार रहता है। पहले-पहल सुखवाड़ा त्रैमासिकी  निकलता रहा। बाद में इसकी बढ़ती माॅंग और इसके महत्व को ध्यान में रखते हुए इसे मासिक कर दिया गया। यह देष, विदेष में जाने वाला समाज का एकमात्र मासिक है। यही नहीं, यह देष की राजधानी से लेकर सुदूर अंचल तक अपनी पहुॅंच बनाने वाला और पढ़ा जाने वाला समाज का एकमात्र मासिक है।

समय के साथ इसे ई पत्रिका का स्वरूप भी प्रदान कर समाज सदस्यों के ई मेल पर प्रतिमाह इसे उपलब्ध कराया जाता है।इसके प्रति लोगों का रूझान बढ़ने का एकमात्र कारण यह है कि यह नियमित प्रकाषित होता है और इसमें प्रकाषित जानकारी समाजोपयोगी एवं दुर्लभ होती है। गाॅव व शहर में निवासरत समाज सदस्यों के मोबा. न.ं, विवाह योग्य सदस्यों की जानकारी, रीति-रिवाज, मुहावरें एवं लोकोक्ति, पहेलियाॅं, विवाह गीत, समाजोपयोगी लेख व समाज के इतिहास पर जानकारी  के साथ-साथ वर्तमान संदर्भ में उसके महत्व पर तर्कसंगत और शोधपरक जानकारी एक साथ इसके माध्यम से पाठकों को उपलब्ध कराई जाती है।

सतपुड़ा संस्कृति संस्थान, भोपाल के माध्यम से समाज के लगभग 1,500 जोड़े परिणय सूत्र में बॅंधे हैं, पत्रों व फोन पर प्रदत्त विज्ञापनों की जानकारी के माध्यम से आवेदन कर 50 से ज्यादा सदस्य शासकीय सेवाओं में सेवारत हैं,लगभग 50,000 से ज्यादा सदस्य पूरे भारत भर में रह रहे समाज सदस्यों के पते, फोन ,मोबा. न.ं से सुख-दुख के अवसरों पर परस्पर सम्पर्क करके लाभाविंत हुए है,भोपाल में अध्ययनरत गरीब बच्चों का षिक्षण शुल्क भरने में मदद करके उनकी आगे की पढ़ाई को जारी रखने के हरसंभव प्रयास किये गये हैं, इस कार्य में समाज सदस्यों द्वारा भी भरपूर सहयोग प्राप्त करने में सफल हुए हैं,मंडीदीप के मंदिर निर्माण में मनोबल बढ़ाने और सम्मानजनक अर्थ जुटाने में सफल हुए हंै,समाजोपयोगी साहित्य का प्रकाषन कर अपनी संस्कृति, अपने रीति-रिवाज,अपनी धरोहर को संजोने-संवारने और आगे बढ़ाने के हर संभव प्रयास किए जा रहे हंेंै और हमें खुषी है कि इन सब प्रयासों में आप सब हमारे साथ हैं।

सुखवाड़ा को इस स्वरूप तक पहुॅचाने में जिन समाज सदस्यों का मुख्य योगदान रहा है उनमें श्री श्यामकांत पवार, श्री अविनाष बारंगे, श्री दिनेष डोंगरदिये, श्री बी एल देषमुख, श्री हरीष कोड़ले, डाॅ आर एन घागरे, श्री राजेष बारंगे,श्री चन्द्रकांत पवार,श्री गुलाबराव देषमुख,श्री वासुदेव भादे,श्री बीडी टोपले,श्री पी आर बारंगे, श्री के एल परिहार,श्री पी एल बारंगे, श्री अषोक डहारे, श्री एसएम खवसे, श्री गुलाब बोवाड़े, श्री एस डी धारपुरे, श्री एम आर पवार, डाॅ कुलेन्द्र कालभोर,डाॅ हेमलता डहारे,श्री निर्मल बोवाड़े,श्री राधेष्याम देषमुख, श्री विजय कड़वे, श्री ब्रजमोहन हजारे, श्री सुदामा बोबड़े, श्री गेंदूलाल पवार, श्री शामराव कोरडे  भोपाल, श्री बलराम बारंगे डहुआ, श्री गणेष पवार, श्री यादोराव पवार पालाचैरई, स्व. श्री सुदरलाल देषमुख, श्री संजय पठाड़े, श्री एनएल पवार दीप, श्री अनिल पवार श्री रामचरण देषमुख, श्री मुन्नालाल बारंगा,श्री शंकर पवार, मुलताई, स्व. श्री चन्द्रषेखर बारंगा, श्री उदल पवार, श्री कन्हैयालाल बुवाड़े, श्री अविनाष देषमुख, डाॅ अषोक बारंगा,श्री किसनलाल बुवाड़े,श्री शंकर पवार बैतूल, श्री अखिलेष परिहार ,श्री  कमल पवार श्री अजय पवार, बैतूलबाजार, श्री विट्ठलनारायण चैधरी, श्री सुरेष देषमुख, श्री ज्ञानेष्वर टेंभरे, श्री दिलीप कालभोर नागपुर, श्री संजय देषमुख,श्री तानबाजी बारंगे, श्री संतोष कौषिक, श्री रमेष धारपुरे,पांढुर्णा, श्री रामदास घागरे,दाड़ीमेटा श्री पी बी पराड़कर सिवनी, श्री एनआर पवार होषंगाबाद, श्री बलराम डहारे, श्री कृष्णा कड़वेकर,श्री धनष्याम कालभोर,मंडीदीप,  डाॅ श्री विजय पराड़कर छिंदवाड़ा, श्री संतोष पवार सिंगरौली, श्री नंदलाल बारंगे, श्री मधुसूदन बोबड़े जबलपुर,श्री भगवत बुवाड़े चन्द्रपुर, श्री उमेष देषमुख, अलीबाग, श्री मधु बारंगे,सारनी, श्री बी आर ढोले, श्री शंकर पवार, पाथाखेड़ा, श्री सुनील बोबड़े द्वय महू आदि प्रमुख हैं।

सृजन निर्मल कार्य है पर यह निर्मम होता है।सर्जक कई मौत मरकर सृजन करता है। यह मौत कई बार बाहरी ताकतों से और कई बार अंदरूनी ताकतों से होती है। सृजन के लिए सर्जक को कई बार अपने प्रति भी निर्मम होना पड़ता है जिससे उसके अपने प्रियजन भी उसकी निर्ममता का षिकार हुए बिना नहीं रह सकते। मेरी पत्नी गीता डोंगरे एवं पुत्र विभांषु डोंगरे इसका अपवाद नहीं हंै। उन्हंे कई बार मेरे दायित्वों का निर्वहन भी करना पड़ा है। और न चाहकर भी लोगों से ऐसी बातें सुनना पड़ी है जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। उन्हें यह पहली बार आभास हुआ कि अच्छे काम भी लोंगों को अच्छे नहीं लगते। परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि यदि आप अच्छा काम करते हैं तो आपको सहयोग और सम्मान भी अच्छा मिलता है और जीवन सफल व सार्थक हो जाता है। खैर, इसके प्रकाषन में कई ज्ञात और अज्ञात सदस्यों का समर्पण और त्याग रहा है जिसके बिना अब तक की यात्रा संभव नहीं थी। जिन सदस्यों के नाम यहाॅं भूलवष नहीं लिये जा सके वास्तव में वे किसी मंदिर के नींव केे पत्थर की भांति महत्वपूर्ण हैं जिनके बिना न तो मदिर बन सकता था न ही कंगूरा इठला सकता था। उन सभी ज्ञात-अज्ञात सहयोगियों के प्रति मेरा सादर नमन्।

वल्लभ डोंगरे,सतपुड़ा संस्कृति संस्थान,भोपाल

संपादकीय : समाज को आपने क्या दिया है?

समाज के लोगों द्वारा यह कहते हुए प्रायः सुना जाता है कि समाज ने हमें क्या दिया है ? ऐसे लोग प्रायः यह भूल जाते हैं कि समाज हमसे अलग नहीं है और हम समाज से अलग नहीं हैं। हम ही समाज है और समाज भी हम ही है। जिस तरह धरती में हम बीज बोकर उसका कई गुणा धरती से प्राप्त करते हैं उसी तरह समाज को कुछ देकर ही हम उससे प्राप्त करने की उम्मीद कर सकते हैं। वास्तव में, समाज हमें वही देता है जो हम उसे देते हैं। अभी हो यह रहा है कि हम समाज को कुछ दिये बिना ही उससे सब कुछ प्राप्त करने की उम्मीद करते रहते हैं और यही हमारे दुख का सबसे बड़ा कारण भी है।

जब तक आप धरती में बीज नहीं बोयेंगे तो फसल कैसे काट पायेंगे ? बीज बोये बिना फसल काटने जायेंगे तो खेत तो बंजर ही मिलेगा न ? समाज तो धरती की तरह आपको सदैव से देता ही आया है। बस, आप उसे देख नहीं पा रहे है या आपने उसे देखने की कभी कोषिष ही नहीं की है। यह समाज का नहीं, अपितु आपका दोष है। जिस समाज में आपने जन्म लिया क्या आप इतने बड़े अपने आप हो गये ? कभी आपने सोचा है कि आपके परिजनों के अलावा कितनों ने आपको गोद में लिया है, कितनों ने आपको खिलाया है, कितनों ने आपकी गंदगी साफ की है, कितनों ने आपको नहलाया-धुलाया, खिलाया-पिलाया है, कितनों ने आपके आॅंसू पोंछे हैं, कितनों ने आपको हॅसाया है, कितनों ने आपको शाला तक जाने में साथ दिया है, कितनों ने आपको पढ़ना-लिखना सिखाया है, कितनों ने हाट-बाजार,मेले में आपका हाथ पकड़कर घुमा-फिराकर सुरक्षित घर वासप लाया है, कितनों ने आपके सुख-दुख में रात-रात भर जागकर आपको सहयोग किया है ताकि आप सो सके, कितनों ने आपको सायकल, स्कूटर, मोटरसायकल, कार आदि चलाना सीखते  समय आपके धीरे-धीरे चलाने को झेला है और जाने की जल्दी होने पर भी आपके सीखने में उनके द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग किया गया है, आपके घर मिर्ची का तड़का लगने पर पड़ोसी को कितनी बार बिना कारण छींकना पड़ा है।

आपके घर आयोजनों में लोग कितनी दूर से अपना समय और पैसा खर्च करके आये हैं ताकि आपका कार्यक्रम सफल हो सके, समाज में आपका मान-सम्मान बना रह सके, कितनों ने आपके विवाह में उपस्थित होकर आपके सुखमय वैवाहिक जीवन की कामना की है, कितनों ने आपके बच्चांे के जन्म और जन्मदिन पर उपस्थित होकर उन्हें आषीर्वाद दिया है, कितनों ने आपके घर गमी होने पर उसे श्मशान तक पहुॅचाने में आपका साथ दिया है, कितनों ने आपके इस दुख के अवसर पर अपना कामकाज छोड़कर आपके साथ पूरे 11 दिनों तक रहकर आपको संबल प्रदान किया है, कितनों ने आपके दुख के अवसर पर आपके घर चूल्हा न जलने पर अपने घर का बना हुआ खाना खिलाया है,  कितनों ने बाजार से आपका सामान लाकर आपको दिया है, कितनों ने आपके परिजनों के लिए बाजार से दवाई लाकर दी है, कितनों ने आपके परिजनों के अस्वस्थ होने पर अस्पताल में दिन और रात काटे हैं, इतना सब कुछ करने के बाद भी आप कहते हैं कि समाज ने मुझे क्या दिया ? यह तो एक तरह से समाज के प्रति घोर कृतघ्नता ही है। यदि आपमें थोड़ी भी हया और शर्म शेष है तो यह प्रष्न अपने आप से करना सीखें कि आपने अब तक समाज को क्या दिया है ?

   आज यदि समाज में अनपढ़ता है तो इसका कारण यह है कि हम पढ-लिखकर समाज की अनपढ़ता को दूर करना भूल गए। आज यदि समाज में दहेज प्रथा है तो इसका कारण यह है कि हमने भी अपने विवाह में अच्छा-खासा दहेज लिया था। आज यदि समाज का भवन नहीं है तो इसका तात्पर्य यह है कि हम अपना घर तो बनाते रहे पर कभी समाज के लिए सोचना भी उचित नहीं समझा। आज यदि समाज में बेरोजगारी है तो इसका कारण यह है कि हमने नौकरी में लगकर कभी अपने बेरोजगार भाई-बहनों की ओर झाॅेककर भी नहीं देखा। आज यदि समाज में गरीबी है तो इसका कारण यह है कि हमारे पास चार पैसे आने पर हमने कभी उसे समाज पर खर्च करना मुनासिब नहीं समझा। अच्छा पद और प्रतिष्ठा पाने पर हमने केवल अपना विकास किया और समाज की कभी सुध लेना उचित नहीं समझा। हम केवल और केवल आत्मकेन्द्रित होकर रह गये। हम यदि समाज के बारे में सोचते, समाज के विकास के बारे में सोचते या  समाज हित में कोई कारगर कदम उठाते तो आज समाज भी विकास और उन्नति की राह पर दिखाई देता, पर ऐसा नहीं हुआ। गाॅव के लोग पढ-लिखकर शहर पहुॅच गये, विदेष पहुॅंच गये पर समाज आज भी गाॅव में ही निवासरत और संघर्षरत है। सम्पूर्ण समाज की उन्नति और विकास के बिना किसी व्यक्ति विषेष की उन्नति ओैर विकास भी अधूरा ही है क्योंकि समाज का विकास एक व्यक्ति से नहीं अपितु उसके समस्त व्यक्तियों से जुड़ा होता है।

  गुजराती आज पूरे संसार में व्यवसाय कर रहे हैं। वे अपने घर और समाज से दूर रहकर भी अपने घर और समाज से कभी दूर नहीं हुए है। वे आज भी अमेरिका में नौकरी करते हुए भी अपने गाॅव के मंदिर हेतु नियमित सहयोग करते हैं, गांव  के बच्चों की उचित षिक्षा-दीक्षा हेतु कम्प्यूटर और नेट की व्यवस्था करते हैं।अपने गुरुओं को सेवानिवृत्त होने पर भी 5 सितम्बर को सम्मानीत करते हैं। अन्य प्रदेशों के कुछ उदाहरण प्रस्तुत है-

तमिलनाडु-

  • चेन्नई में स्कूल के छोटे बच्चों को सड़क पार कराने के लिए समुदाय के सदस्यों द्वारा नियमित सहयोग किया जाता है।
  • प्रदेष की शालाओं में मदर्स क्लब का गठन किया गया है जो प्रतिदिन शाला में उपस्थित होकर परिसर की साफ-सफाई, टाइलेट्स की साफ-सफाई ,मध्याह्न भोजन की गुणवत्ता आदि की नियमित मानीटरिंग करता है।
  • महत्वपूर्ण त्योहारों का आयोजन, खेलकूद, वार्तालाप, व्याख्यान आदि के अवसर पर समुदाय की सहभागिता सुनिष्चित कर समुदाय को शिक्षा से जोड़ने का प्रयास किया जाता है।
  • बेटी बचाने के उद्देष्य से प्रदेष में कन्या शिशु  बचाओ कार्यक्रम चलाया जा रहा है।

कर्नाटक-

  • कर्नाटक में बच्चों के बीच जातपाॅत की गहरी भावना पाई जाती है। ऊॅची जाति के बच्चों का नीची जाति के बच्चों के साथ न बैठने और उनके साथ खाना न खाने के चलते इस भावना को मिटाने के लिए खेल का सहारा लिया गया। आपस में खेल खेलने के लिए बच्चे सहमत हो गए और जातपात की भावना भूलाकर धीरे-धीरे वे एक दूसरे का हाथ थामकर खेल खेलने लगे।
  • कर्नाटक में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिष्चित करने के उददेष्य से ”नम्मा शाले” (समुदाय और शाला को समीप लाना) नामक कार्यक्रम चलाया जा रहा है जिसके माध्यम से समुदाय और शाला को समीप लाने का अनूठा प्रयास किया जा रहा है। अपने गाॅव के सरकारी स्कूल में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिष्चित करने के लिए समुदाय और शाला के संयुक्त प्रयास से योजना व प्रबंधन इस तरह किया जाता है कि दोनों ही परस्पर पूरक व सहयोगी साबित हो रहे हैं। इसमें  7 प्रकार के स्टेकहोल्डर्स हैं-बच्चे, अभिभावक, शिक्षक, एसडीएमसी के सदस्य, समुदाय आधारित संगठन, ग्राम पंचायत, और षिक्षा प्रषासक जिन्हें इन्द्रधनुषीय स्टेकहोल्डर्स कहा जाता है।
  • एसएमसी के सदस्यों की उपस्थिति बढ़ाने व समुदाय की सहभागिता सुनिष्चित करने के लिए स्कूल की बैठक के पूर्व अन्य विभाग के अधिकारियों द्वारा उपयोगी जानकारी प्रदान करने से अच्छे परिणाम सामने आए हैं। जैसे-बोनी के अवसर पर किसानों को बीज व खाद की जानकारी देना।

आंध्रप्रदेश-

  • ऋषिवेली में संचालित सेटेलाइट शालाओं में षिक्षकों के साथ-साथ समुदाय के लोगों को भी बारी-बारी से अपने व्यवसाय से संबंधित जानकारी प्रदान करने के लिए अवसर प्रदान किए जाते हैं। बच्चों को अपने माता-पिता व दादा-दादी से कहानी सुनकर उसे कक्षा में सुनाने के लिए कहा जाता है जिसे बच्चे ”मेरी कहानी” के नाम से कागज पर लिखकर कक्षा में प्रदर्षित भी करते हैं।

गुजरात

  • प्रदेष में षिक्षा की गुणवत्ता सुनिष्चित करने के उद्देष्य से ”गुणोत्सव” नामक शैक्षिक कार्यक्रम वर्ष में तीन-तीन दिनों के लिए दो बार आयोजित किया जाता है। इस कार्यक्रम के अवसर पर जनप्रतिनिधि,ग्राम पंचायत के प्रतिनिधि एवं एसएमसी के सदस्यों की सहभागिता अनिवार्य होती है। परिणाम की घोषणा के अवसर पर सभी सरपंच,एसएमसी के सदस्य उपस्थित रहते हैं और अपनी अपनी शाला का परिणाम बेहतर लाने की होड़ मची होती है। बेहतर परिणाम देने वाली शाला को अनुपम शाला कहा जाता है जो उस क्षेत्र की आदर्ष शाला होती है। अनुपम शाला कहलाना ही षिक्षक व गाॅव के लोगों के लिए गौरव की बात होती है। षिक्षा में समुदाय की सहभागिता से बेहतर परिणाम लाने का यह प्रयास अनुकरणीय है।
  • बच्चों में प्रकृति व पर्यावरण के प्रति संवेदनषीलता व प्रेम विकसित करने के उद्देष्य से सभी शालाओं में अक्षयपात्र रखे जाते हैं जिनमें बच्चे अपने घर से माचिस की डिबिया भर सप्ताह में एक बार अनाज लाते हैं जिसे अक्षयपात्र में इकट्ठा किया जाता है और पक्षियों को खिलाया जाता है। यह समुदाय के सहयोग के बिना संभव नहीं है।
  • ”कन्या केलवनी रथ यात्रा”-षालाओं में बालिकाओं का शत प्रतिषत नामांकन सुनिष्चित करने के उद्देष्य से ”कन्या केलवनी रथ यात्रा” समुदाय के सक्रिय सहयोंग से  गाॅव गाॅव निकाली जाती है, जिसपर कन्याओं को बिठाया जाता है तथा कन्याओं को शाला भेजने हेतु अभिभावकों को अभिप्रेरित किया जाता है। विद्यालक्षी बांड योजना के तहत कक्षा 1 में कन्या को दर्ज करने पर बच्ची के नाम से 1000 रु जमा किए जाते हैं। प्रारंम्भिक षिक्षा पूरी करने पर ब्याज सहित राषि संबंधित पालक को दे दी जाती है।
  • पालक पिता योजना- विद्यालक्षी बांड योजना के तहत कक्षा 1 में बच्चे को दर्ज करने पर बच्चे के नाम से 1000 रु जमा किए जाते हैं। प्रारंम्भिक षिक्षा पूरी करने पर ब्याज सहित राषि संबंधित पालक को दे दी जाती है।
  • विद्यादीप योजना-षाला में दर्ज बच्चे का अकस्मात घायल होने पर रु 25,000 व उसकी मृत्यु हो जाने पर रु 50,000 की राषि पालक को सहायतार्थ प्रदान की जाती है।
  • सीडब्ल्यूएसएन बच्चों के लिए प्रोत्साहन राषि-पालक की 50,000 तक वार्षिक आय होने पर कक्षा 1 से 8 तक के बच्चों को  1000/- व कक्षा 9 से आगे अध्ययनरत होने पर 5000/- छात्रवृत्ति देने का प्रावधान है। रु 25,000 से कम आय होने पर रु 5000/-की राषि प्रति वर्ष ट्राइसायकल/सिलाई मषीन/कम्प्यूटर आदि खरीदने के लिए दी जाती है। 40 प्रति. से अधिक विकलांगता होने पर 17 वर्ष की उम्र तक 200/- प्रति माह व 18 से 64 वर्ष की उम्र में 400/- प्रति माह सहायता प्रदान की जाती है।
  • तिथि भोजन-समुदाय की सहभागिता सुनिष्चित करने के उद्देष्य से गुजरात के गाॅवों में तिथि भोजन का प्रचलन चल पड़ा है। प्रतिदिन किसी न किसी के घर से बच्चों के लिए भोजन पकाकर स्कूल में पहुॅचा दिया जाता है। पूरे माह भर के लिए तिथि भोजन की तिथि इच्छुक अभिभावकों से पूर्व में ही ले ली जाती है। इस तरह स्कूल के बच्चों के भोजन की व्यवस्था समुदाय की सहभागिता द्वारा सफलतापूर्वक की जा रही है।

प. बंगाल-

  • प. बंगाल में मध्याह्न भोजन हेतु जब सब्जियाॅं खरीदी जाती है तब समुदाय का सहयोग उल्लेखनीय होता है। उदाहरण के लिए-यदि मध्याह्न भोजन हेतु 40 किलो सब्जी खरीदी जाती है तो 20 किलों सब्जी का ही पैसा लेकर 20 किलो सब्जी दुकानदार द्वारा दान में दे दी जाती है। इस तरह षिक्षा में  समुदाय का सहयोग प्राप्त होता है।
  • कन्या समृद्धि योजना- कन्या समृद्धि योजना के अंतर्गत माॅं को दो बेटी के जन्म तक बेटी के जन्म पर 1500/- सहयोग राषि प्रदान की जाती है।

केरल-

  • मछली पकड़ने वाले परिवारों के बच्चों को मछुआरा छात्रवृत्ति एवं, बीड़ी बनाने वाले परिवारों के बच्चों को बीड़ी छात्रवृत्ति प्रदान की जाती है।

हिमाचल प्रदेश-

  • गरीबी रेखा से नीचे के परिवार के बच्चों को गरीबी छात्रवृत्ति दी जाती है।
  • प्रदेष में ”बेटी है अनमोल योजना” बेटी बचाने के उद्देष्य से चलाई जा रही है।
जरूरी नहीं कि समाज को ज्यादा देने के चक्कर में हम कम देना भी भूल ही जाए। सवाल कम और ज्यादा का नहीं अपितु आपकी भावना का है। आप अपने समाज को एक रुपया देकर तो देखें, बदले में समाज आपको कितना क्या देता है आप स्वयं जान जायेंगे। यदि नहीं भी जान सके तो आपके द्वारा उठाया गया कदम उस पौधे रोपने की तरह होगा जिसके फल रोपने वाला भले ही न खा पाए पर उसके बाद की पीढ़ियाॅं उनका स्वाद जरूर चखेगी। आपका पौधे रोपना ही बहुत कारगर कदम है। आज पौधे रोपने वाले कम और फल खाने वाले ज्यादा हो गये है। इसीलिए समाज में गरीबी है, अवनति है, अविकास है। आइये, हम एक छोटी शुरुआत करके अपने समाज को आगे बढ़ाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दें।          

                       वल्लभ डोंगरे, भोपाल-9425392656

सुखवाड़ा, दिसंबर-2013 : अंक के आकर्षण

       
मैं बचाता रहा दीमकों से घर अपना,
और चंद कुर्सी के कीड़े पूरा मुल्क खा गये।

अंक के आकर्षण

  • संपादकीय-समाज को आपने क्या दिया है?
  • सुखवाड़ा का 15 वर्षीय सार्थक सफर
  • छोटे-छोटे प्रयासों से बड़ी-बड़ी खुशियां 
  • जन जागृति लाता सतपुड़ा संस्कृति संस्थान
  • समाज सदस्य को सहयोग संसार को सहयोग
  • समाज समाचार
  • विवाह योग्य सदस्यों की जानकारी
  • पाठकों की प्रतिक्रिया
  • छिंदवाड़ा जिले के समाज सदस्यों के मो.न.
  • सीखों सबक पवारों

सुखवाड़ा आपका अपना मंच है। आप अपनी रचनाएं भेजकर इस मंच पर अपनी भूमिका बखूबी निभा सकते हैं। इसके लिए आप सादर आमंत्रित हैं।

लेखन,संपादन, प्रकाशन 

वल्लभ डोंगरे
सतपुड़ा संस्कृति संस्थान,
एच आईजी-6,सुखसागर विला,
फेज-1, भेल,भोपाल-462022
मोबा.09425392656
ई-मेल- vallabhdongre6@gmail.com

सुखवाड़ा, दिसंबर-2013  

Wednesday, February 19, 2014

सुखवाड़ा अब ऑनलाइन पढ़िए

मित्रों, सतपुड़ा संस्कृति संस्थान द्वारा पिछले 15 वर्षों से प्रकाशित मासिक पत्रिका 'सुखवाड़ा' आप ऑनलाइन भी पढ़ सकेंगे। आप यहां अपनी प्रतिक्रिया भी आसानी से दें सकते हैं। हमसे संपर्क के लिए ई-मेल- sssbpl12013@gmail.com