Friday, May 27, 2016

डॉ. टीबी टेंभरे की किताब पवारी ज्ञानदीप यहां पढ़िए

डॉ. टीबी टेंभरे की किताब पवारी ज्ञानदीप यहां पढ़िए
http://www.slideshare.net/UmeshwarThakur/pawari-gyandeep-written-by-dr-d-tembhare-nagpur

Saturday, December 6, 2014

प्रेमचंद की कहानी : बड़े भाई साहब

मेरे भाई साहब मुझसे पॉँच साल बडे़ थे, लेकिन तीन दरजे आगे। उन्होंने भी उसी उम्र में पढ़ना शुरु किया
था जब मंैने शुरु किया लेकिन तालीम जैसे महत्त्व के मामले में वह जल्दीबाजी से काम लेना पसंद न करते
थे। इस भवन कि बुनियाद खूब मजबूत डालना चाहते थे जिस पर आलीशान महल बन सके। एक साल
का काम दो साल में करते थे। कभी-कभी तीन साल भी लग जाते थे। बुनियाद ही पुख्ता न हो, तो मकान
कैसे पाएदार बने।

मैं छोटा था, वह बडे़ थे। मेरी उम्र नौ साल की, वह चैदह साल के थे। उन्हें मेरी तम्बीह और निगरानी का
पूरा जन्मसिद्ध अधिकार था। और मेरी शालीनता इसी में थी कि उनके हुक्म को कानून समझूँ।
वह स्वभाव से बडे़ अध्ययनशील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग को आराम देने के
लिए कभी काॅपी पर, कभी किताब के हाशियों पर चिडि़यों, कुत्तों, बिल्लियांे की तस्वीरें बनाया करते थे।
कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को बार-बार सुन्दर
अक्षर से नकल करते। कभी ऐसी शब्द-रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्य! मसलन
एक बार उनकी काॅपी पर मैंने यह इबारत देखी- स्पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दर-असल, भाई-भाई,
राधेश्याम, श्रीयुत राधेश्याम, एक घंटे तक इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था। मैंने चेष्टा
की कि इस पहेली का कोई अर्थ निकालूँ लेकिन असफल रहा और उसने पूछने का साहस न हुआ। वह
नवी जमात में थे, मैं पाँचवी में। उनकी रचनाआंे को समझना मेरे लिए छोटा मुंह बड़ी बात थी।
मेरा जी पढ़ने में बिलकुल न लगता था। एक घंटा भी किताब लेकर बैठना पहाड़ था। मौका पाते ही
हाॅस्टल से निकलकर मैदान में आ जाता और कभी कंकरियाँ उछालता, कभी कागज़ कि तितलियाँ उड़ाता,
और कहीं कोई साथी मिल गया तो पूछना ही क्या कभी चारदीवारी पर चढ़कर नीचे कूद रहे हंै, कभी
फाटक पर वार, उसे आगे-पीछे चलाते हुए मोटरकार का आनंद उठा रहे हैं। लेकिन कमरे में आते ही भाई
साहब का रौद्र रूप देखकर प्राण सूख जाते। उनका पहला सवाल होता-‘कहाँ थे?‘ हमेशा यही सवाल,
इसी ध्वनि में पूछा जाता था और इसका जवाब मेरे पास केवल मौन था। न जाने मुँह से यह बात क्यों न
निकलती कि जरा बाहर खेल रहा था। मेरा मौन कह देता था कि मुझे अपना अपराध स्वीकार है और भाई
साहब के लिए इसके सिवा और कोई इलाज न था कि रोष से मिले हुए शब्दों में मेरा सत्कार करें।
‘इस तरह अंग्रेजी पढ़ोगे, तो जि़न्दगी-भर पढ़ते रहोगे और एक हर्फ न आएगा। अंग्रेजी पढ़ना कोई
हंँसी-खेल नहीं है कि जो चाहे पढ़ ले, नहीं, ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सभी अंग्रेजी के विद्वान हो जाते। यहाँ
रात-दिन आँखंे फोड़नी पड़ती है और खून जलाना पड़ता है, जब कही यह विधा आती है। और आती क्या
है, हाँ, कहने को आ जाती है। बडे़-बडे़ विद्वान भी शुद्ध अंग्रेजी नहीं लिख सकते, बोलना तो दूर रहा। और
मैं कहता हूँ, तुम कितने घोंघा हो कि मुझे देखकर भी सबक नहीं लेते। मैं कितनी मेहनत करता हूँ, तुम
अपनी आँखांे देखते हो, अगर नहीं देखते, तो यह तुम्हारी आँखो का कसूर है, तुम्हारी बुद्धि का कसूर है।
इतने मेले-तमाशे होते है, मुझे तुमने कभी देखने जाते देखा है, रोज ही क्रिकेट और हाॅकी मैच होते हैं। मैं
पास नहीं फटकता। हमेशा पढ़ता रहा हूँ, उस पर भी एक-एक दरजे में दो-दो, तीन-तीन साल पड़ा रहता
हूँ फिर तुम कैसे आशा करते हो कि तुम यों खेल-कूद में वक्त गंवाकर पास हो जाओगे? मुझे तो
दो-ही-तीन साल लगते हैं, तुम उम्र-भर इसी दरज़े में पड़े सड़ते रहोगे। अगर तुम्हे इस तरह उम्र गंवानी
है, तो बेहतर है, घर चले जाओ और मजे से गुल्ली-डंडा खेलो। दादा की गाढ़ी कमाई के रुपये क्यों
बरबाद करते हो?’

मैं यह लताड़ सुनकर आंसू बहाने लगता। जवाब ही क्या था। अपराध तो मैंने किया, लताड़ कौन सहे?
भाई साहब उपदेश कि कला में निपुण थे। ऐसी-ऐसी लगती बातें कहते, ऐसे-ऐसे सूक्ति-बाण चलाते कि
मेरे जिगर के टुकडे़-टुकडे़ हो जाते और हिम्मत छूट जाती। इस तरह जान तोड़कर मेहनत करने की
शक्ति मैं अपने में न पाता था और उस निराशा मे ज़रा देर के लिए मैं सोचने लगता-क्यों न घर चला
जाऊँ। जो काम मेरे बूते के बाहर है, उसमे हाथ डालकर क्यों अपनी जि़न्दगी खराब करूं। मुझे अपना मूर्ख
रहना मंजूर था लेकिन उतनी मेहनत से मुझे तो चक्कर आ जाता था। लेकिन घंटे दो घंटे बाद निराशा के
बादल फट जाते और मैं इरादा करता कि आगे से खूब जी लगाकर पढू़ंगा। चटपट एक टाइम-टेबिल बना
डालता। बिना पहले से नक्शा बनाए, बिना कोई स्कीम तैयार किए काम कैसे शुरू करूं? टाइम-टेबिल में,
खेल-कूद की मद बिलकुल उड़ जाती। प्रातःकाल उठना, छः बजे मुँह-हाथ धोना, नाश्ता कर पढ़ने बैठ
जाना। छः से आठ तक अंग्रेजी, आठ से नौ तक हिसाब, नौ से साढ़े नौ तक इतिहास, फिर भोजन और
स्कूल। साढ़े तीन बजे स्कूल से वापस होकर आधा घंटा आराम, चार से पाँच तक भूगोल, पाँच से छः तक
ग्रामर, आधा घंटा हाॅस्टल के सामने टहलना, साढ़े छः से सात तक अंग्रेजी कम्पोजीशन, फिर भोजन करके
आठ से नौ तक अनुवाद, नौ से दस तक हिन्दी, दस से ग्यारह तक विविध विषय, फिर विश्राम।
मगर टाइम-टेबिल बना लेना एक बात है, उस पर अमल करना दूसरी बात। पहले ही दिन से उसकी
अवहेलना शुरु हो जाती। मैदान की वह सुखद हरियाली, हवा के वह हलके-हलके झोंके, फुटबाल की
उछल-कूद, कबड्डी के वह दाँव-घात, वाली-बाल की वह तेजी और फुरती मुझे अज्ञात और अनिवार्य रूप
से खींच ले जाती और वहाँ जाते ही मैं सब कुछ भूल जाता। वह जान-लेवा टाइम-टेबिल, वह आँखफोड़
पुस्तकें किसी कि याद न रहती, और फिर भाई साहब को नसीहत और फजीहत का अवसर मिल जाता। मैं
उनके साये से भागता, उनकी आँखों से दूर रहने कि चेष्टा करता। कमरे मे इस तरह दबे पाँव आता कि
उन्हें खबर न हो। उनकी नज़र मेरी ओर उठी और मेरे प्राण निकले। हमेशा सिर पर नंगी तलवार-सी
लटकती मालूम होती। फिर भी जैसे मौत और विपत्ति के बीच मे भी आदमी मोह और माया के बंधन में
जकड़ा रहता है, मैं फटकार और घुड़कियाँ खाकर भी खेल-कूद का तिरस्कार न कर सकता।

2.
सालाना इम्तहान हुआ। भाई साहब फेल हो गए, मैं पास हो गया और दरजे में प्रथम आया। मेरे और
उनके बीच केवल दो साल का अन्तर रह गया। जी में आया, भाई साहब को आडे़ हाथो लूँ। आपकी वह
घोर तपस्या कहाँ गई? मुझे देखिए, मजे से खेलता भी रहा और दरजे में अव्वल भी हूँ। लेकिन वह इतने
दुःखी और उदास थे कि मुझे उनसे दिल्ली हमदर्दी हुई और उनके घाव पर नमक छिड़कने का विचार ही
लज्जास्पद जान पड़ा। हाँ, अब मुझे अपने ऊपर कुछ अभिमान हुआ और आत्माभिमान भी बढ़ा भाई साहब
का वह रौब मुझ पर न रहा। आज़ादी से खेल-कूद में शरीक होने लगा। दिल मजबूत था। अगर उन्होंने
फिर मेरी फजीहत की, तो साफ कह दूँगा- आपने अपना खून जलाकर कौन-सा तीर मार लिया। मैं तो
खेलते-कूदते दरजे में अव्वल आ गया। जबाव से यह हेकड़ी जताने का साहस न होने पर भी मेरे रंग-ढंग
से साफ ज़ाहिर होता था कि भाई साहब का वह आतंक अब मुझ पर नहीं है। भाई साहब ने इसे भाँप
लिया-उनकी सहज बुद्धि बड़ी तीव्र थी और एक दिन जब मैं भोर का सारा समय गुल्ली-डंडे कि भेंट
करके ठीक भोजन के समय लौटा, तो भाई साहब ने मानों तलवार खींच ली और मुझ पर टूट पड़े-देखता
हूँ, इस साल पास हो गए और दरजे में अव्वल आ गए, तो तुम्हंे दिमाग हो गया है मगर भाईजान, घमंड तो
बडे़-बडे़ का नहीं रहा, तुम्हारी क्या हस्ती है, इतिहास में रावण का हाल तो पढ़ा ही होगा। उसके चरित्र से
तुमने कौन-सा उपदेश लिया? या यों ही पढ़ गए? महज इम्तहान पास कर लेना कोई चीज नहीं, असल
चीज़ है बुद्धि का विकास। जो कुछ पढ़ो, उसका अभिप्राय समझो। रावण भूमंडल का स्वामी था। ऐसे
राजाओं को चक्रवर्ती कहते हैं। आजकल अंग्रेजों के राज्य का विस्तार बहुत बढ़ा हुआ है, पर इन्हंे चक्रवर्ती
नहीं कह सकते। संसार में अनेको राष्ट्र अंग्रेजों का आधिपत्य स्वीकार नहीं करते। बिलकुल स्वाधीन हैं।
रावण चक्रवर्ती राजा था। संसार के सभी महीप उसे कर देते थे। बडे़-बडे़ देवता उसकी गुलामी करते थे।
आग और पानी के देवता भी उसके दास थे मगर उसका अंत क्या हुआ, घमंड ने उसका नाम-निशान तक
मिटा दिया, कोई उसे एक चुल्लू पानी देने वाला भी न बचा। आदमी जो कुकर्म चाहे करें पर अभिमान न
करे, इतराए नहीं। अभिमान किया और दीन-दुनिया से गया।

शैतान का हाल भी पढ़ा ही होगा। उसे यह अनुमान हुआ था कि ईश्वर का उससे बढ़कर सच्चा भक्त कोई
है ही नहीं। अन्त में यह हुआ कि स्वर्ग से नरक में ढकेल दिया गया। शाहेरूम ने भी एक बार अहंकार
किया था। भीख मांग-मांगकर मर गया। तुमने तो अभी केवल एक दरजा पास किया है और अभी से
तुम्हारा सिर फिर गया, तब तो तुम आगे बढ़ चुके। यह समझ लो कि तुम अपनी मेहनत से नहीं पास हुए,
अन्धे के हाथ बटेर लग गई। मगर बटेर केवल एक बार हाथ लग सकती है, बार-बार नहीं। कभी-कभी
गुल्ली-डंडे में भी अंधा चोट निशाना पड़ जाता है। उससे कोई सफल खिलाड़ी नहीं हो जाता। सफल
खिलाड़ी वह है, जिसका कोई निशाना खाली न जाए।

मेरे फेल होने पर न जाओ। मेरे दरजे में आओगे, तो दाँतांे पसीना आयेगा। जब अलजबरा और जाॅमेट्री के
लोहे के चने चबाने पड़ेंगे और इंगलिस्तान का इतिहास पढ़ना पड़ेगा! बादशाहों के नाम याद रखना आसान
नहीं। आठ-आठ हेनरी को गुजरे हैं, कौन-सा कांड किस हेनरी के समय हुआ, क्या यह याद कर लेना
आसान समझते हो? हेनरी सातवें की जगह हेनरी आठवां लिखा और सब नम्बर गायब! सफाचट। सिर्फ भी
न मिलेगा, सिफर भी! हो किस ख्याल में! दरजनांे तो जेम्स हुए हैं, दरजनों विलियम, कौडि़यों चाल्र्स
दिमाग चक्कर खाने लगता है। अंधी रोग हो जाता है। इन अभागों को नाम भी न जुड़ते थे। एक ही नाम
के पीछे दोयम, तेयम, चहारम, पंचम लगाते चले गए। मुझसे पूछते, तो दस लाख नाम बता देता।
और जामेट्री तो बस खुदा की पनाह! अ ब ज की जगह अ ज ब लिख दिया और सारे नम्बर कट गए।
कोई इन निर्दयी मुतमईनों से नहीं पूछता कि आखिर अ ब ज और अ ज ब में क्या फर्क है और व्यर्थ की
बात के लिए क्यांे छात्रों का खून करते हो दाल-भात-रोटी खायी या भात-दाल-रोटी खायी, इसमें क्या
रखा है मगर इन परीक्षकांे को क्या परवाह! वह तो वही देखते हैं, जो पुस्तक में लिखा है। चाहते हैं कि
लड़के अक्षर-अक्षर रट डाले और इसी रटंत का नाम शिक्षा रख छोड़ा है और आखिर इन बे-सिर-पैर की
बातों के पढ़ने से क्या फायदा?

इस रेखा पर वह लम्ब गिरा दो, तो आधार लम्ब से दुगना होगा। पूछिए, इससे प्रयोजन? दुगना नहीं,
चैगुना हो जाए, या आधा ही रहे, मेरी बला से, लेकिन परीक्षा में पास होना है, तो यह सब खुराफात याद
करनी पड़ेगी। कह दिया-‘समय की पाबंदी’ पर एक निबन्ध लिखो, जो चार पन्नों से कम न हो। अब आप
काॅपी सामने खोले, कलम हाथ में लिये, उसके नाम को रोइए।

कौन नहीं जानता कि समय की पाबन्दी बहुत अच्छी बात है। इससे आदमी के जीवन में संयम आ जाता है,
दूसरो का उस पर स्नेह होने लगता है और उसके कारोबार में उन्नति होती है। ज़रा-सी बात पर चार
पन्ने कैसे लिखें? जो बात एक वाक्य में कही जा सके, उसे चार पन्ने में लिखने की जरूरत? मैं तो इसे
हिमाकत समझता हूँ। यह तो समय की किफायत नहीं, बल्कि उसका दुरुपयोग है कि व्यर्थ में किसी बात
को ठूंस दिया। हम चाहते हैं, आदमी को जो कुछ कहना हो, चटपट कह दे और अपनी राह ले। मगर नहीं,
आपको चार पन्ने रंगने पडे़ंगे, चाहे जैसे लिखिए और पन्ने भी पूरे फुलस्केप आकार के। यह छात्रांे पर
अत्याचार नहीं तो और क्या है? अनर्थ तो यह है कि कहा जाता है, संक्षेप में लिखो। समय की पाबन्दी पर
संक्षेप में एक निबन्ध लिखो, जो चार पन्नों से कम न हो। ठीक! संक्षेप में चार पन्ने हुए, नहीं शायद सौ-दो
सौ पन्ने लिखवाते। तेज भी दौडि़ए और धीरे-धीरे भी। है उल्टी बात या नहीं? बालक भी इतनी-सी बात
समझ सकता है, लेकिन इन अध्यापकों को इतनी तमीज़ भी नहीं। उस पर दावा है कि हम अध्यापक है।
मेरे दरजे में आओगे लाला, तो ये सारे पापड़ बेलने पड़ेंगे और तब आटे-दाल का भाव मालूम होगा। इस
दरजे में अव्वल आ गए हो, वो ज़मीन पर पाँव नहीं रखते इसलिए मेरा कहना मानिए। लाख फेल हो गया
हूँ, लेकिन तुमसे बड़ा हूँ, संसार का मुझे तुमसे ज्यादा अनुभव है। जो कुछ कहता हूँ, उसे गिरह बांधिए
नहीं पछताएँगे।

स्कूल का समय निकट था, नहीं ईश्वर जाने, यह उपदेश-माला कब समाप्त होती। भोजन आज मुझे
निःस्वाद-सा लग रहा था। जब पास होने पर यह तिरस्कार हो रहा है, तो फेल हो जाने पर तो शायद
प्राण ही ले लिए जाएं। भाई साहब ने अपने दरजे की पढ़ाई का जो भयंकर चित्र खींचा था उसने मुझे
भयभीत कर दिया। कैसे स्कूल छोड़कर घर नहीं भागा, यही ताज्जुब है लेकिन इतने तिरस्कार पर भी
पुस्तकों में मेरी अरुचि ज्यो-कि-त्यों बनी रही। खेल-कूद का कोई अवसर हाथ से न जाने देता। पढ़ता भी
था, मगर बहुत कम। बस, इतना कि रोज का टास्क पूरा हो जाए और दरजे में जलील न होना पड़े। अपने
ऊपर जो विश्वास पैदा हुआ था, वह फिर लुप्त हो गया और फिर चोरांे का-सा जीवन कटने लगा।

3
फिर सालाना इम्तहान हुआ, और कुछ ऐसा संयोग हुआ कि मैं फिर पास हुआ और भाई साहब फिर फेल
हो गए। मैंने बहुत मेहनत न की पर न जाने, कैसे दरजे में अव्वल आ गया। मुझे खुद अचरज हुआ। भाई
साहब ने प्राणांतक परिश्रम किया था। कोर्स का एक-एक शब्द चाट गये थे। दस बजे रात तक इधर, चार
बजे भोर से उधर, छः से साढ़े नौ तक स्कूल जाने के पहले। मुद्रा कांतिहीन हो गई थी, मगर बेचारे फेल
हो गए। मुझे उन पर दया आती थी। नतीजा सुनाया गया, तो वह रो पड़े और मैं भी रोने लगा। अपने पास
होने वाली खुशी आधी हो गई। मैं भी फेल हो गया होता, तो भाई साहब को इतना दुःख न होता, लेकिन
विधि की बात कौन टाले?

मेरे और भाई साहब के बीच में अब केवल एक दरजे का अन्तर और रह गया। मेरे मन में एक कुटिल
भावना उदय हुई कि कही भाई साहब एक साल और फेल हो जाएँ, तो मैं उनके बराबर हो जाऊं, फिर वह
किस आधार पर मेरी फजीहत कर सकेंगे, लेकिन मैंने इस कमीने विचार को दिल से बलपूर्वक निकाल
डाला। आखिर वह मुझे मेरे हित के विचार से ही तो डाँटते हैं। मुझे उस वक्त अप्रिय लगता है अवश्य,
मगर यह शायद उनके उपदेशों का ही असर हो कि मैं दनादन पास होता जाता हूँ और इतने अच्छे नम्बरों
से।

अबकी भाई साहब बहुत-कुछ नर्म पड़ गए थे। कई बार मुझे डाँटने का अवसर पाकर भी उन्होंने धीरज से
काम लिया। शायद अब वह खुद समझने लगे थे कि मुझे डाँटने का अधिकार उन्हंे नहीं रहा या रहा तो
बहुत कम। मेरी स्वच्छंदता भी बढ़ी। मैं उनकी सहिष्णुता का अनुचित लाभ उठाने लगा। मुझे कुछ ऐसी
धारणा हुई कि मैं तो पास ही हो जाऊंगा, पढूँ या न पढूँ मेरी तकदीर बलवान है, इसलिए भाई साहब के
डर से जो थोड़ा-बहुत पढ़ लिया करता था, वह भी बंद हुआ। मुझे कनकौए उड़ाने का नया शौक पैदा हो
गया था और अब सारा समय पतंगबाजी ही की भेंट होता था, फिर भी मैं भाई साहब का अदब करता था,
और उनकी नज़र बचाकर कनकौए उड़ाता था। मांझा देना, कन्ने बांधना, पतंग टूर्नामेंट की तैयारियां आदि
समस्याएँ अब गुप्त रूप से हल की जाती थीं। भाई साहब को यह संदेह न करने देना चाहता था कि
उनका सम्मान और लिहाज मेरी नज़रांे से कम हो गया है।

एक दिन संध्या समय हाॅस्टल से दूर मैं एक कनकौआ लूटने बेतहाशा दौड़ा जा रहा था। आँखें आसमान
की ओर थीं और मन उस आकाशगामी पथिक की ओर, जो मंद गति से झूमता पतन की ओर चला जा
रहा था, मानो कोई आत्मा स्वर्ग से निकलकर विरक्त मन से नए संस्कार ग्रहण करने जा रही हो। बालकों
की एक पूरी सेना लग्गे और झाड़दार बांस लिये उनका स्वागत करने को दौड़ी आ रही थी। किसी को
अपने आगे-पीछे की खबर न थी। सभी मानो उस पतंग के साथ ही आकाश में उड़ रहे थे, जहाँ सब कुछ
समतल है, न मोटरकारें है, न ट्राम, न गाडि़याँ।

सहसा भाई साहब से मेरी मुठभेड़ हो गई, जो शायद बाजार से लौट रहे थे। उन्होने वही मेरा हाथ पकड़
लिया और उग्रभाव से बोले-इन बाजारी लड़कों के साथ धेले के कनकौए के लिए दौड़ते तुम्हें शर्म नहीं
आती? तुम्हें इसका भी कुछ लिहाज नहीं कि अब नीची जमात में नहीं हो, बल्कि आठवीं जमात में आ गये
हो और मुझसे केवल एक दरजा नीचे हो। आखिर आदमी को कुछ तो अपनी पोजीशन का ख्याल करना
चाहिए। एक जमाना था कि कि लोग आठवां दरजा पास करके नायब तहसीलदार हो जाते थे। मैं कितने
ही मिडलचियों को जानता हूँ, जो आज अव्वल दरजे के डिप्टी मजिस्ट्रेट या सुपरिटेंडेंट है। कितने ही
आठवी जमाअत वाले हमारे लीडर और समाचार-पत्रों के सम्पादक हैं। बडे़-बडे़ विद्वान उनकी मातहती में
काम करते हैं और तुम उसी आठवें दरजे में आकर बाजारी लड़कों के साथ कनकौए के लिए दौड़ रहे हो।
मुझे तुम्हारी इस कमअकली पर दुख होता है। तुम जहीन हो, इसमें शक नहीं लेकिन वह जेहन किस काम
का, जो हमारे आत्मगौरव की हत्या कर डाले? तुम अपने दिल में समझते होगे, मैं भाई साहब से महज एक
दर्जा नीचे हूँ और अब उन्हे मुझको कुछ कहने का हक नहीं है लेकिन यह तुम्हारी गलती है। मैं तुमसे पाँच
साल बड़ा हूँ और चाहे आज तुम मेरी ही जमाअत में आ जाओ और परीक्षकों का यही हाल है, तो निस्संदेह
अगले साल तुम मेरे समकक्ष हो जाओगे और शायद एक साल बाद तुम मुझसे आगे निकल जाओ-लेकिन
मुझमें और जो पाँच साल का अन्तर है, उसे तुम क्या, खुदा भी नहीं मिटा सकता। मैं तुमसे पाँच साल बड़ा
हूँ और हमेशा रहूंगा। मुझे दुनिया का और जिन्दगी का जो तजु़रबा है, तुम उसकी बराबरी नहीं कर सकते,
चाहे तुम एम. ए., डी. फिल. और डी. लिट. ही क्यांे न हो जाओ। समझ किताबें पढ़ने से नहीं आती है।
हमारी अम्मा ने कोई दरजा पास नहीं किया, और दादा भी शायद पांचवी जमात के आगे नहीं गये, लेकिन
हम दोनों चाहे सारी दुनिया की विद्या पढ़ लें, अम्मा और दादा को हमें समझाने और सुधारने का अधिकार
हमेशा रहेगा। केवल इसलिए नहीं कि वे हमारे जन्मदाता हैं, बल्कि इसलिए कि उन्हें दुनिया का हमसे
ज्यादा तजुरबा है और रहेगा। अमेरिका में किस जरह कि राज्य-व्यवस्था है और आठवे हेनरी ने कितने
विवाह किये और आकाश में कितने नक्षत्र है, यह बाते चाहे उन्हे न मालूम हो, लेकिन हजारों ऐसी बाते हैं,
जिनका ज्ञान उन्हंे हमसे और तुमसे ज्यादा है।

दैव न करें, आज मैं बीमार हो जाऊं, तो तुम्हारे हाथ-पाँव फूल जाएंगें। दादा को तार देने के सिवा तुम्हंे
और कुछ न सूझेगा लेकिन तुम्हारी जगह पर दादा हो, तो किसी को तार न दें, न घबराएं, न बदहवास
हों। पहले खुद मरज पहचानकर इलाज करेंगे, उसमें सफल न हुए, तो किसी डाॅक्टर को बुलायंेगे। बीमारी
तो खैर बड़ी चीज़ है। हम-तुम तो इतना भी नहीं जानते कि महीने-भर का महीने-भर कैसे चले। जो कुछ
दादा भेजते हैं, उसे हम बीस-बाईस तक खर्च कर डालते हंै और पैसे-पैसे को मोहताज हो जाते हैं।
नाश्ता बंद हो जाता है, धोबी और नाई से मुँह चुराने लगते हैं लेकिन जितना आज हम और तुम खर्च कर
रहे हैं, उसके आधे में दादा ने अपनी उम्र का बड़ा भाग इज्जत और नेकनामी के साथ निभाया है और एक
कुटुम्ब का पालन किया है, जिसमंे सब मिलाकर नौ आदमी थे। अपने हेडमास्टर साहब ही को देखो। एम.
ए. हैं कि नहीं, और यहा के एम. ए. नहीं, आॅक्सफोर्ड के। एक हजार रुपये पाते हैं, लेकिन उनके घर
इंतजाम कौन करता है? उनकी बूढ़ी माँ। हेडमास्टर साहब की डिग्री यहाँ बेकार हो गई। पहले खुद घर
का इंतजाम करते थे। खर्च पूरा न पड़ता था। करजदार रहते थे। जब से उनकी माताजी ने प्रबंध अपने
हाथ मे ले लिया है, जैसे घर में लक्ष्मी आ गई है। तो भाईजान, यह जरूर दिल से निकाल डालो कि तुम
मेरे समीप आ गये हो और अब स्वतंत्र हो। मेरे देखते तुम बेराह नहीं चल पाओगे। अगर तुम यों न मानोगे,
तो मैं (थप्पड़ दिखाकर) इसका प्रयोग भी कर सकता हूँ। मैं जानता हूँ, तुम्हें मेरी बातें जहर लग रही है।
मैं उनकी इस नई युक्ति से नतमस्तक हो गया। मुझे आज सचमुच अपनी लघुता का अनुभव हुआ और भाई
साहब के प्रति मेरे तम में श्रद्धा उत्पन्न हुई। मैंने सजल आँखों से कहा-हरगिज नहीं। आप जो कुछ फरमा
रहे हंै, वह बिलकुल सच है और आपको कहने का अधिकार है।

भाई साहब ने मुझे गले लगा लिया और बोले-कनकौए उड़ान को मना नहीं करता। मेरा जी भी ललचाता
है, लेकिन क्या करूँ, खुद बेराह चलूं तो तुम्हारी रक्षा कैसे करूँ? यह कत्र्तव्य भी तो मेरे सिर पर है।
संयोग से उसी वक्त एक कटा हुआ कनकौआ हमारे ऊपर से गुजरा। उसकी डोर लटक रही थी। लड़कों
का एक गोल पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था। भाई साहब लंबे हैं ही, उछलकर उसकी डोर पकड़ ली और
बेतहाशा हाॅस्टल की तरफ दौड़े। मैं पीछे-पीछे दौड़ रहा था।

(दिसंबर 2014 अंक में प्रकाशित)

सुखवाड़ा का भाई पर केंद्रित अंक

सुखवाड़ा दिस 2014 का भाई पर केंद्रित अंक प्रस्तुत है। कृपया इसे पढ़े और अपनों से शेयर भी करे. अंक पर आपकी प्रतिक्रिया हमारा मनोबल बढाती है। हमें आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा। सुखवाडा  जनवरी 2015 का अंक भोज के साहित्यिक -सांस्कृतिक अवदान पर केंद्रित है। सादर।

Friday, March 14, 2014

माय

मक्या की  पेरी  रोटी प
भेदरा की चटनीसी माय।

गोबर पानी कपड़ा-लत्ता
झाड़ू पोछा जसी  माय।
टूटी फूटी खाट प सुवय
हाथ सिराना लेख माय।

आधी सुवय आधी जागय
हर आरा प उठय माय।
सांझ सबेरे पनघट पानी
सांझ  सबेरे चूल्हा माय।

सबक्ख अच्छो खाना देय
रूखो  सूखो खाय  माय।
घर म जब बीमार है कुई
डाक्टर  नर्स  दाई माय।

घर अउर खेत दुही जघा
दिन भर खुटती रव्हय माय।
गाय बइल अउर बेटा-बेटी
सबकी  चिंता करय माय।

घट्टी दापका,कोदो कुटकी
धान जसी  पिसाय माय।
दिन भर भी फुर्सत नी ओख
अउत का पाछ फिरय माय।

बेटा- बेटी  साई  खेत म
एक-एक दाना बुवय माय।
नींदय खुरपय फसल देखय
देख- देख  हर्षावय माय।

काटय-उठावय,दावन करय
दुख भूसा सी उड़ावय माय।

-वल्लभ डोंगरे