Sunday, February 23, 2014

छोटे-छोटे प्रयासों से बड़ी-बड़ी खुशियां बांटता जीवन : वल्लभ डोंगरे

वल्लभ डोंगरे
सन् 1984 की बात है। श्रीमती इंदिरा गाधी की हत्या हो जाने से पूरा शहर आगजनी, हत्या और मारकाट में डूबा था। उन दिनों मैं भोपाल में ही था। 10-15 दिनों तक कर्फ्यू लगा था। खाने-पीने का सामान नहीं था। घर परिवार और गांव के लोग चिंतित थे। उसी वर्ष भोपाल में गैस त्रासदी भी हुई। हजारों लोगों की जाने गई। इसने पूरे भोपाल को झकझोर कर रख दिया। गैस त्रासदी के बाद लूटपाट, अत्याचार अनाचार की घटनाएं बढ़ गई जिससे पूरे शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया। इस समय भी 10-15 दिन तक लोगों को घर से बाहर निकलने पर प्रतिबंध था। मृतक संख्या हजारों में होने से घर परिवार और गाव के लोग घबरा गए। उन दिनों फोन एवं मोबाइल की सुविधा नही थी। कफ्र्यू समाप्त होते ही अपने क्षे़त्र से लोग भोपाल अपने परिजनों की खोज में आ गए। कुछ लोग अपनों की खोज में मुझ तक भी पहुच गए और अपने परिजनों के बारे में जानकारी लेने लगे। मैं उनके किसी परिजन को नहीं जानता था। उस दिन पहली बार मुझे आभास हुआ कि काश मेरे पास इनके परिजनों के नाम-पते होते तो मैं पराए परदेश में इनके काम आ जाता। उसी दिन मैंने अपने मन में संकल्प लिया था कि मैं भोपाल में रहने वाले समाज सदस्यों के नाम पते एकत्रित कर सभी को उपलब्ध कराऊंगा ताकि सुख-दुख के अवसर पर हम एक-दूसरे के काम आ सके।

आप जहां भी है, जैसे भी हैं, वहीं रहकर अपने जीवन को सार्थकता प्रदान कर नई ऊंचाइयाँ दे सकते हैं। इसके लिए आपको किसी बड़े पद पर रहने या किसी संस्था-संगठन से जुड़े रहने की भी जरूरत नहीं है। जरूरत है तो केवल जज्बे,जोष और जुनून की जिसके बल पर आप वह कर सकते हैं जो बड़े पद पर रहकर भी नहीं किया जा सकता या किसी संस्था-संगठन से जुड़े रहकर भी नहीं किया जा सकता। जानिए, ऐसी ही कुछ छोटी-छोटी बातें जो लोगों को बड़ी-बड़ी खुशियां देकर आपके पूरे व्यक्तित्व को ही साधारण के स्थान पर असाधारण बना देती हैं।

सन् 1970 के दषक में गाॅवों में छुआछूत की भावना चरम पर थी। गाॅव के लोहार की मृत्यु हो जाने पर गाॅव के लोग छुआछूत के चलते उसके अंतिम संस्कार को तैयार नहीं थे। लोहार के छोटे-छोटे बच्चों को देख पिताजी द्वारा लोगों से अनुरोध किया गया पर इसका किसी पर कोई असर न देख उन्होंने स्वयं बैलगाड़ी जोतकर व उसमें इंधन भरकर ष्मषान पहुॅचाया और उसी गाड़ी में मृतक लोहार के शव को लादकर ले जाकर अकेले ही अंतिम संस्कार कर दिया गया। इसी तरह एक बार नागपंचमी पर सांईखेड़ा का वृद्ध ढीमर लाही चने बाॅटने व जाल दरवाजे पर लगाने आया हुआ था। इसके बदले में गाॅव के लोग उसे अनाज दे दिया करते थे। लौटते वक्त वह रास्ते में गिरकर बेहोष हो गया एवं वहीं स्वर्ग सिधार गया।पिताजी द्वारा षीघ्र ही सांई्रखेड़ा खबर की गई पर कोई उस षव को लेने नहीं आया। रात में शव को कोई जानवर नुकसान न पहुॅंचा पाएं इस हेतु पिताजी द्वारा उसकी रखवाली के लिए लोगों से विनती की पर छुआछूत के चलते कोई भी इसके लिए तैयार नहीं हुआ। पिताजी द्वारा अकेले ही उस शव की रात भर रखवाली की गई और अगले दिन अकेले ही उसका अंतिम संस्कार करना पड़ा।

   गाॅव में उन दिनों रात्रि विश्राम के लिए कोई साधन नहीं हुआ करता था। ऐसे  में माँ -पिताजी अपने घर में ही दुकानदार, वेैद्य, खरीदार या राहगीरों को रात्रि विश्राम की सुविधा मुहैया करा दिया करते थे। खेत से आने पर माॅं अपने लिए जो भोजन पकाती वह ही रात्रि विश्राम कर रहे लोगों को खिलाती थी। हमारा काम उनको भोजन परोसने का होता था। इस तरह कई सालों तक यह सिलसिला चलता रहा। इस तरह अनजान व राहगीरों को षरण देना भी लोगों को भाता नहीं था और तरह-तरह की बातें की जाती थी। बचपन से ही मैं यह सीख गया था कि लोग न तो स्वयं अच्छा काम करते हैं न ही दूसरे द्वारा किया जा रहा अच्छा काम उन्हें अच्छा लगता है।

मार्च से मई तक गर्मी के तीन माह गाॅव के पालतू जानवरों का पिताजीे हमारे कुएं पर पानी पिलाने की व्यवस्था करते थे। अमराई की घनी छाॅव में पूरी दोपहरी गाॅव के सैकड़ों पषु सुस्ताया करते थे। हम पूरी दोपहरी उनपर नजर रखा करते थे और आम के पेड़ों पर डाब-डुबेली खेला करते थे। जानवरों को पानी पिलाने पर भी लोगों को अच्छा नहीं लगता था। लोग कहते थे हम पिलायेंगे पानी और स्वयं कोई व्यवस्था नहीं कर पाते थे। आखिरकार, हमें ही  पानी पिलाने की व्यवस्था करनी पड़ती थी। अपने माता-पिता से विरासत में मिले सेवा के इन संस्कारों को मैंनेे अपने जीवन में भी जारी रखने का प्रयास किया है।

बैतूल पढ़ने आए तो एक कमरे की क्वाटर में भी गाॅव वालों का ताॅता लगा रहता। कभी कोई बीमार है तो कभी कोई । बीमार व्यक्ति के घर से कोई न कोई क्वाटर पर बना ही रहता। हमें अपना, बीमार व्यक्ति और ऐसे लोगों का भी खाना बनाना पड़ता। कई बार पोस्टमार्टम के लिए पहुॅचे गाॅव के 50-60 लोगों का भी खाना बनाना पड़ता था। हम पढ़ाई के साथ यह सब किया कते थेे। शायद ही कोई सप्ताह सुना जाता रहा हो जब हमारे क्वाटर पर कोई मेहमान न रूकता रहा हो।

पढ़ने के साथ-साथ मुझे पत्र लिखने का बेहद शौक था। मैं जब भी पत्र-पत्रिकाओं में कोई विज्ञापन देखता तो अपने परिचितों को पत्र के माध्यम से इसकी सूचना दे दिया करता था और वे आवेदन कर दिया करते थे। इस तरह गाॅव व शहर में रह रहे कई समाज सदस्य इससे लाभांवित हुए और आज वे कहीं न कहीं नौकरी कर रहे है। पत्र का मैंने विभिन्न कामों के लिए उपयोग किया। अपने घर से दूर रह रहे मित्रों को पत्र भेजकर व उनका मनोबल बढ़ाकर उनका दिल जीता। पोस्टकार्ड/जवाबी पोस्टकार्ड के माध्यम से फोन नं. व पते की जानकारी संकलित की गई। पोस्ट कार्ड का उपयोग विवाह योग्य सदस्यों की जानकारी संकलित करने में भी खूब किया गया। मैं एक बार में 1000-1000 पोस्ट कार्ड खरीदता था। पोस्ट आफिस वाले मुझे व्यक्तिगत रूप से जानने लगे थे। किसी के घर डाक आए न आए मेरे घर रोज डाक जरूर आया करती थी।

पोस्ट कार्ड का उपयोग मैंने विवाह पर बधाई देने, बड़ों को तीज त्योहार व उनकी विवाह वषगाॅठ पर बधाई देने तथा बच्चों को उनके जन्मदिन पर बधाई देने में भी खूब किया। पोस्ट कार्ड पर दी जाने वाली बधाई का इतना व्यापक असर होता कि हर कोई उसे पढ़ता और कार्ड एक हाथ से दूसरे हाथ गुजरकर अंततः एलबम के प्रथम फ्लेप पर स्थान पाता। जन्मदिन पर प्रेषित बधाई भरा पोस्टकार्ड बच्चे अपनी कक्षा के बच्चों को दिखाने ले जाते और वह कार्ड पूरी कक्षा में बड़े चाव से पढ़ा जाता। अपनी खुषी दूसरों में बाॅटने का सलीका मैंने इन्हीं बच्चों से सीखा। सुख-दुख के प्रत्येक अवसर पर व्यक्तिषः उपस्थित न रहकर पोस्टकार्ड के जरिए मेरे द्वारा अपनी अनुपस्थिति को भी सार्थक उपस्थिति में परिणत करने का प्रयास किया जाता रहा। मेरा कार्ड उनके लिए मेरी उपस्थिति बने सदैव यही प्रयास किया जाता रहा। और होता भी यही रहा कि मैं अपने विचारों को पोस्ट कार्ड के जरिए प्रेषित करता और वे सबके हाथों से गुजरते हुए उनके मन-मस्तिष्क तक पहुॅच जाते।

एक बार एक मैडम अपनी दो-तीन साल की बिटिया के साथ अपने पति से दूर दूसरे शहर में रह रही थी। उन दिनों पति-पत्नी के बीच संवाद का जरिया केवल पत्र ही था। फोन व मोबाइल का प्रचलन नहीं था। उनकी बेटी बोली-मम्मा, हर कोई आपको ही पत्र भेजता है मुझे तो कोई भेजता ही नहीं। और ऐसा कहकर वह बड़ी मायूस और उदास हो गई। श्रीमती के माध्यम से मुझे पता चला तो मैंने मेरी श्रीमती के माध्यम से उसका पता ज्ञात किया और उस बिटिया के नाम पत्र लिख दिया। अपने नाम का पहला खत पाकर वह इतनी अभिभूत हुई कि उसके पैर जमीन पर पड़ ही नहीं रहे थे। उसकी खुषी के बारे में जानकर मुझे भी बेहद खुषी हुई और तबसे ऐसे नन्हे-मुन्नों को भी पत्र लिखने का सिलसिला चल पड़ा। इसने मुझे सबका चहेता बना दिया। बच्चे अपने जन्मदिन पर मेरे पत्र का बेसब्री से इंतजार करने लगे।

पत्रों द्वारा न जाने कितने जान-अनजान लोगों को संजीवनी प्राप्त हुई होगी इसकी तो कोई प्रामाणिक जानकारी नही है। परन्तु इन ज्ञात-अज्ञात लोगों द्वारा दी गई दुआओं ने मेरी जिंदगी को काफी खुषनुमा बनाया है। इस संबंध में यही कहा जा सकता है-

          न जाने कौन मेरे हक में दुआ करता है
डूबते को हर बार दरिया उछाल देता है।
सुबह 4-5 बजे घूमने निकलता तो तीज त्योहार पर रास्ते भर सैकड़ांे हस्तलिखितष्बधाई व शुभकामना पत्र बाॅटते चलता। घर के मेन गेट पर मैं उन्हें लगा दिया करता। जब लोगों की नींद खुलती और वे अपना गेट खोलते तो तीज त्योहार पर बधाई व शुभकामना पाकर उनका मन प्रसन्न हो जाता। इस तरह न जाने कितने जान-अनजान लोगों की दुआएं मिलती और दिन खुषी-खुषी बीत जाता।

 पत्र-पत्रिकाओं से जुड़ा होने के कारण बच्चों के साक्षात्कार लेकर प्रकाषित करवाता या उनकी कोई रचना किसी पत्र पत्रिका में प्रकाषित करवा देता जिससे उनकी खुषी का ठिकाना नहीं रहता। वे दिल से मुझे चाहने लगते। कई बच्चों द्वारा आज दिनाॅंक तक उनके प्रकाषित उन कविता-कहानी या साक्षात्कार को सुरक्षित रखा गया है तथा उन्हंे देखकर वे समय-समय पर खुष हो लिया करते हैं।

कार्यालय में सेवारत सैकड़ों अधिकारी-कर्मचारी व उनके परिजनों को उनके जन्मदिन पर बधाई देने का सिलसिला पूरे साल ही जारी रहता। तीज त्योहार पर भी यह सिलसिला जारी रहता। उन्हें पत्र-पत्रिकाओं में लिखने हेतु उकसाता और वे लिखते भी और छपते भी। उन्हंे अपनी छपी रचना का पारिश्रमिक जब मनीआर्डर या चेक के माध्यम से मिलता तो उनकी खुषी का ठिकाना नहीं रहता। इस तरह अपने छोटे-छोटे प्रयासों के माध्यम से लोगों को बड़ी-बड़ी खुषियाॅं देता रहा।

एक बार किसी अनजान बच्चे की 10 वीं कक्षा की मूल अंकसूची बस स्टाप पर पड़ी मिली जहाॅं से इंजीनियरिंग के बच्चे अपनी बस में बैठते थे।उसमें अंकित स्कूल की सील के आधार पर जवाबी पोस्टकार्ड भेजकर संबंधित बच्चे का शाला रिकार्ड में दर्ज पता भेजने का अनुरोध किया गया। पता मिलते ही संबंधित बच्चे को पुनः पत्र भेजकर अंकसूची प्राप्त करने संबंधी अनुरोध किया गया। सुविधा की दृष्टि से पत्र में पता एवं फोन न. दिया गया था ताकि बच्चो को घर ढूॅढने में असुविधा न हो। वह बच्चा आया और अपनी अंकसूची सुरक्षित पाकर दुआएं देते हुए चला गया। आज वह बच्चा इंजीनियर है।

मोहल्ले की सड़क मुख्यतः बारीष के दिनों में पानी से भर जाया करती थी। सभी को आने जाने में परेषानी हुआ करती थी, पर कोई कुछ करना नहीं चाहता था। एक दिन सुबह घूमने के स्थान पर दो घंटे उसकी मरम्मत में देने का विचार आया और फावड़ा तथा तसला लेकर जुट गया। लोग सोकर उठ पाते उसके पूर्व ही सड़क सुविधाजनक रूप से आने जाने के लिए तैयार थी। लोग आते जाते उस अनजान फरिष्ते को दुआएं देते जा रहे थे। उस दिन लगा मानो आज का दिन सार्थक हो गया। पूरे दिन मन प्रसन्न रहा। ऐसे फिर न जाने कितने स्थानों के  के गड्ढे व नालियों की मरम्मत करने का सुख मिला है और लोगो की दुआएं मिली है।

सन् 1984 की बात है। श्रीमती इंदिरा गाधी की हत्या हो जाने से पूरा शहर आगजनी, हत्या और मारकाट में डूबा था। उन दिनों मैं भोपाल में ही था। 10-15 दिनों तक कफ्र्यू लगा था। खाने-पीने का सामान नहीं था। घर परिवार और गाॅव के लोग चिंतित थे। उसी वर्ष भोपाल में गैस त्रासदी भी हुई। हजारों लोगों की जाने गई। इसने पूरे भोपाल को झकझोर कर रख दिया। गैस त्रासदी के बाद लूटपाट ,अत्याचार अनाचार की घटनाएं बढ़ गई जिससे पूरे शहर में कफ्र्यू लगा दिया गया। इस समय भी 10-15 दिन तक लोगों को घर से बाहर निकलने पर प्रतिबंध था। मृतक संख्या हजारों में होने से घर परिवार और गाव के लोग घबरा गए। उन दिनों फोन एवं मोबाइल की सुविधा नही थी। कफ्र्यू समाप्त होते ही अपने क्षे़त्र से लोग भोपाल अपने परिजनों की खोज में आ गए। कुछ लोग अपनों की खोज में मुझ तक भी पहुच गए और अपने परिजनों के बारे में जानकारी लेने लगे। मैं उनके किसी परिजन को नहीं जानता था। उस दिन पहली बार मुझे आभास हुआ कि काष मेरे पास इनके परिजनों के नाम-पते होते तो मेंै पराए परदेष में इनके काम आ जाता। उसी दिन मैंने अपने मन में संकल्प लिया था कि मैं भोपाल में रहने वाले समाज सदस्यों के नाम पते एकत्रित कर सभी को उपलब्ध कराऊंगा ताकि सुख-दुख के अवसर पर हम एक-दूसरे के काम आ सके।

इसी तरह श्री बीजी पवार के देहावसान की सूचना कार्यालय के फोन पर मिली। मैं उनके घर पर पहुॅचा तो पता चला कि उन्होंने तो घर बदल दिया है। मैं और मेरे जैसे कई लोग उनके अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो पाए थे। उसमें कुछ चुनिंदा सदस्य ही पहॅंच पाए थे। इस घटना से मैंें अंदर तक हिल गया और मैंने नाम-पते एकत्रित करने का काम बिना विलम्ब किए प्रारंभ कर दिया। 1985 में ही भोपाल में रह रहे समाज सदस्यों के नाम-पते वाली डायरेक्ट्री के साथ कुछ उपयोगी सामग्री प्रकाषित कर उसे लोगों को उपलब्ध करा दी गई। उसका यह लाभ हुआ कि अपने क्षेत्र से भोपाल आने वाले सदस्य उसे अपने साथ लेकर आते थे।

रोजगार एवं षिक्षा से संबंधित उपयोगी जानकारी होने से बैतूल के हर समाज में उसको काफी सराहा गया था। इसी काम को विस्तार देने की मन में प्रबल इच्छा के चलते मैं गाॅंव गाॅव व शहर-षहर में रह रहे समाज सदस्यों के नाम पते एकत्रित करने लगा और लगभग 15 वर्षों में पूरे भारत भर में रहने वाले समाज सदस्यों के नाम पते एकत्रित कर सन् 2000 के प्रारंभ में ही सम्पर्क शीर्षक से एक डायरेक्ट्री प्रकाषित की जिसमें बैतूल, छिंदवाड़ा, वर्धा,नागपुर ,अमरावती, आदि जिलों के अधिकांष गाॅवों में रह रहे समाज सदस्यों के नाम पते शामिल किए गए थे।

इसके साथ-साथ भारत भर के शहरों में रह रहे व विदेषों में रह रहे समाज सदस्यों के नाम पते भी इसमें शामिल किए गए थे। इसके प्रकाषन से पहली बार लोगों को महसूस हुआ कि समाज के सदस्य न केवल भारत भर में अपितु विदेषों में भी रह रहे हैं। इसके प्रकाषन से लोगों को सुख-दुख में परस्पर सम्पर्क करने में सुविधा होने लगी। उल्लेखनीय है कि इस समय तक समाज सदस्यों के घर फोन की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। विवाह आदि के निमंत्रण पत्र इन प्रकाषित नाम-पते के आधार पर भेजने में लोगों को काफी सुविधा होने लगीे थी। इसके प्रकाषन से हम 20 वीं सदी में ही जागरूक बन सके थे और कुछ न कर पाने के कलंक से बच सके थे अन्यथा एक पूरी की पूरी सदी हमें हमारी निष्क्रियता और आलसीपन के लिए कोसती रहती।

इसके बाद विवाह योग्य सदस्यों की जानकारी वाली पुस्तक जीवनसाथी का प्रकाषन नवम्बर 2000 तक करके समाज के विवाह योग्य सदस्यों के माता-पिता के लिए रिष्तों की इतनी सारी पुस्तक के प्रकाषन से समाज में साहस और हिम्मत की भावना का संचार भी हुआ था। लोग अब पुरातनपंथी सोच से उबरकर नई सोच की ओर बढ़ने लगे थे। इसके प्रकाषन से लोगों को समझ में आने लगा था कि समय के साथ चलने में ही हमारी और हमारे समाज की भलाई है। लोग हिचक छोड़कर अपने घर परिवार के विवाह योग्य सदस्यों की जानकारी देने लगे थे। जिन सदस्यों द्वारा अपने घर परिवार के विवाह योग्य सदस्यों की जानकारी नहीं दी गई थी उनके घर विवाह हेतु कोई रिष्ते नहीं आ पा रहे थे। इस तरह उन्हंे विवाह हेतु काफी इंतजार व परिश्रम करना पड़ा था। उस वर्ष जीवनसाथी के माध्यम से सैकड़ों रिष्ते हुए थे और मेरे घर विवाह के निमंत्रण पत्रों का अम्बार लग गया था।

सन् 2002 तक अधिकांष समाज सदस्यों के घर फोन की सुविधा उपलब्ध हो गई थी। इसे देखते हुए परस्पर सम्पर्क हेतु हॅलो पापा नामक पाॅकेट फोन डायरेक्ट्री प्रकाषित की गई जिसमें पूरे भारत भर व विदेषों में रह रहे समाज सदस्यों के फोन नं संकलित किए गए थे। इसकी लोकप्रियता को देखते हुए वर्ष 2003 में ही इसका दूसरा संस्करण प्रकाषित करना पड़ा था। समाज सदस्य इसे अपने साथ रखने में गौरव का अनुभव करते थे। हॅलो पापा ने गाॅव और शहर के बीच और समाज सदस्यों के बीच की दूरी कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसकी उपयोगिता और सार्थकता के बारे में जानने के लिए एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा। भोपाल में रह रहे सिवनी, पांढुर्णा के देषमुख परिवार के वृद्ध पिताश्री का देहावसान हो गया। उनके रिष्तेदार सिवनी, पांढुर्णा और छिंदवाड़ा में रहते थे। उनके समक्ष उन सबको सूचना देने का संकट उठ खड़ा हुआ। तभी उन्हें याद आया कि उनके पास हॅलो पापा रखी हुई है। वे तत्काल एसटीडी पर गए और उनमें संकलित फोन नम्बर पर अपने रिष्तेदारों को देहावसान की सूचना दे दी। अगले दिन सुबह तक सभी रिष्तेदार अंतिम संस्कार में शामिल हो गए। मैं भी अंतिम संस्कार में उपस्थित था। उस समय श्री देषमुखजी द्वारा सभी समाज सदस्यों को बताया गया कि श्री डोंगरे जी द्वारा प्रकाषित हॅलो पापा के कारण ही आप सब आज अंतिम संस्कार में षामिल हो पाए हैं। उनके इन शब्दों से मुझे लगा जैसे मेरा श्रम सार्थक हो गया और मैं हॅलो पापा के माध्यम से उनके काम आ सका।

इसके पूर्व मैं 3 वर्ष यूनिसेफ ,1 वर्ष यूएनओ व 1 वर्ष यूनेस्को जैसी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं में सेवाएं देता रहा। वहाॅं मानवता की भलाई के लिए काम करते हुए मन में यह विचार आया कि हमारे समाज में भी काफी पिछड़ापन, गरीबी, अज्ञानता और निरक्षरता है, क्यों न अपने समाज के लिए ही अपने स्तर से कुछ सेवा कार्य किया जाएं। अखबारों ,पत्र-पत्रिकाओं में मैंने खूब लिखा और खूब धन भी कमाया पर उसमें वह शांति और सुकून नहीं मिला जो समाज साहित्य के प्रकाषन के बाद मिला। इस तरह मैं समाज के लिए कार्य करने का विचार लेकर समाज के लिए कुछ कर गुजरने की भावना से समाज हित में अपने स्तर से कुछ कार्य करने लगा जिनमें से कुछ के बारे में मैं आपको पूर्व में ही बता चुका हूॅं। यह बात सही है कि किसी संगठन विषेष तक सीमित न रहकर मेरा प्रयास पूरे समाज को समाहित किए हुए है। ऐसा समाज जिसकी कल्पना भारतीय संस्कृति में वसुधैव कुटुम्बकम् के रूप में की गई है।कहने का तात्पर्य यह है कि-क्या चिंता धरती पर छूटी उड़ने को आकाष बहुत है। करने के लिए काम की कमी नहीं है। काम करने के लिए दृष्टि चाहिए।
मै सूरज हूं जिंदगी की रमक छोड़ जाऊंगा 
’गर डूब भी गया तो शफक छोड़ जाऊंगा ।                                                                             -वल्लभ डोंगरे,  संपादक, सुखवाड़ा

1 comment:

  1. बहुत ही प्रेरक है आप की जीवन गाथा।।

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