पवार समाज की पत्रिका, संपादक- श्री वल्लभ डोंगरे, सतपड़ा संस्कृति संस्थान भोपाल द्वारा पिछले 15 वर्षों से लगातार प्रकाशित
Saturday, March 15, 2014
Friday, March 14, 2014
माय
मक्या की पेरी रोटी प
भेदरा की चटनीसी माय।
गोबर पानी कपड़ा-लत्ता
झाड़ू पोछा जसी माय।
टूटी फूटी खाट प सुवय
हाथ सिराना लेख माय।
आधी सुवय आधी जागय
हर आरा प उठय माय।
सांझ सबेरे पनघट पानी
सांझ सबेरे चूल्हा माय।
सबक्ख अच्छो खाना देय
रूखो सूखो खाय माय।
घर म जब बीमार है कुई
डाक्टर नर्स दाई माय।
घर अउर खेत दुही जघा
दिन भर खुटती रव्हय माय।
गाय बइल अउर बेटा-बेटी
सबकी चिंता करय माय।
घट्टी दापका,कोदो कुटकी
धान जसी पिसाय माय।
दिन भर भी फुर्सत नी ओख
अउत का पाछ फिरय माय।
बेटा- बेटी साई खेत म
एक-एक दाना बुवय माय।
नींदय खुरपय फसल देखय
देख- देख हर्षावय माय।
काटय-उठावय,दावन करय
दुख भूसा सी उड़ावय माय।
-वल्लभ डोंगरे
भेदरा की चटनीसी माय।
गोबर पानी कपड़ा-लत्ता
झाड़ू पोछा जसी माय।
टूटी फूटी खाट प सुवय
हाथ सिराना लेख माय।
आधी सुवय आधी जागय
हर आरा प उठय माय।
सांझ सबेरे पनघट पानी
सांझ सबेरे चूल्हा माय।
सबक्ख अच्छो खाना देय
रूखो सूखो खाय माय।
घर म जब बीमार है कुई
डाक्टर नर्स दाई माय।
घर अउर खेत दुही जघा
दिन भर खुटती रव्हय माय।
गाय बइल अउर बेटा-बेटी
सबकी चिंता करय माय।
घट्टी दापका,कोदो कुटकी
धान जसी पिसाय माय।
दिन भर भी फुर्सत नी ओख
अउत का पाछ फिरय माय।
बेटा- बेटी साई खेत म
एक-एक दाना बुवय माय।
नींदय खुरपय फसल देखय
देख- देख हर्षावय माय।
काटय-उठावय,दावन करय
दुख भूसा सी उड़ावय माय।
-वल्लभ डोंगरे
श्रीमती पार्वती बाई देशमुख को नागपुर 'विदर्भ विभूषण'
नागपुर। निरक्षर पर अक्षर के प्रति आदर भाव के चलते 70 वर्षीया श्रीमती पार्वतीबाई देशमुख द्वारा लगभग 60-70 कविताएं रची गई जिसे शाम टीवी चेनल द्वारा अपने टीवी कार्यक्रम में विशेष रूप से प्रसारित किया गया। श्रीमती देशमुख अपने गांव में सामान्य महिला की तरह जिंदगी गुजारते हुए अपनी रचनाधर्मिता के कारण पत्र-पत्रिकाओं एवं टीवी पर छा गई।
उल्लेखनीय है इसके पूर्व महाराष्ट्र के जलगांव की ही निरक्षर कवयित्री बहना बाई अपनी रचनाधर्मिता के कारण ही लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर पाने में सफल हुई थी।
हाल ही में नागपुर में आयोजित पुस्तक मेले में अपरिहार्य कारणों से श्री रस्किन बांड के उपस्थित न हो पाने पर श्रीमती पार्वती बाई देशमुख को आमंत्रित कर उनका सम्मान एवं सत्कार किया गया था। श्रीमती देशमुख की रचनाधर्मिता परिवार में भी झलकती दिखाई देती है।
उन्हीं का पुत्र श्री सुरेश देशमुख आज समाज का गौरव है तथा समाज के सम्मानजनक पद पर रहते हुए समाज सेवा में रत है एवं अखिल भारतीय स्तर पर कई महत्वपूर्ण काम जैसे राजा भोज की मूर्ति स्थापना,केलेण्डर का प्रकाषन, समाज साहित्य की सीडी तैयार कर साहित्य प्रेमियों को उपलब्ध कराने में गहरी रूचि लेते है। पेशे से इंजीनियर श्री सुरेश देशमुख का साहित्य के प्रति रूझान का मुख्य कारण उनकी अपनी मां का साहित्य के प्रति गहरा अनुराग ही है।
श्री वल्लभ डोंगरे द्वारा प्रकाशित किताब पवारी परम्पराएं और प्रथाएं की 20 प्रति आरक्षित कराकर श्री देशमुख द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से समाज साहित्य के संरक्षण एवं संवर्द्धन में सहयोग ही किया गया है। इस तरह श्री देशमुख अपनी मां के नक्शेकदम पर चलकर समाज और समाज साहित्य की सेवा ही कर रहे हैं। श्रीमती पार्वती बाई देशमुख के कार्य से उनके घर-परिवार के सदस्यों के साथ-साथ सम्पूर्ण पवार समाज भी गौरवांवित हुआ है। एक निरक्षर का अक्षर कार्य सदैव दूसरों को प्रेरणा देता रहेगा।
श्रीमती पार्वती बाई देशमुख की तीन कविताएं
मला लागली भूक
धीर धरू कोठवरी/माझ्या मायेचं घर/पाण्याचा वाटेवरी/मला लागली भूक/जाऊ कोणच्या डोंगरी/पित्याच्या बगीच्यात/आल्या पाठा उंबरी.
सखी मी जोड़ते
आईच्या आडून/करे येण जाण/मोगन्या खालून/सखी मी जोड़ते/तुझ्यावर जीव/दिसणार कशी?
बाई दरून दिसते
बाई दरून दिसते/माहेरची गं पंढरी/तिथं पित्यानं गं माझ्या/आंबा लावला षंदरी/माझ्या माहेरचा गायी/माझे माय बाप आहे/विट्ठल रखुबाई.
श्रीमती पार्वती बाई देशमुख को मिले सम्मान व विभिन्न गतिविधियों में उनकी सक्रियता के साक्ष्य
पार्वती बाई देशमुख को मिले सम्मान-
उल्लेखनीय है इसके पूर्व महाराष्ट्र के जलगांव की ही निरक्षर कवयित्री बहना बाई अपनी रचनाधर्मिता के कारण ही लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर पाने में सफल हुई थी।
हाल ही में नागपुर में आयोजित पुस्तक मेले में अपरिहार्य कारणों से श्री रस्किन बांड के उपस्थित न हो पाने पर श्रीमती पार्वती बाई देशमुख को आमंत्रित कर उनका सम्मान एवं सत्कार किया गया था। श्रीमती देशमुख की रचनाधर्मिता परिवार में भी झलकती दिखाई देती है।
उन्हीं का पुत्र श्री सुरेश देशमुख आज समाज का गौरव है तथा समाज के सम्मानजनक पद पर रहते हुए समाज सेवा में रत है एवं अखिल भारतीय स्तर पर कई महत्वपूर्ण काम जैसे राजा भोज की मूर्ति स्थापना,केलेण्डर का प्रकाषन, समाज साहित्य की सीडी तैयार कर साहित्य प्रेमियों को उपलब्ध कराने में गहरी रूचि लेते है। पेशे से इंजीनियर श्री सुरेश देशमुख का साहित्य के प्रति रूझान का मुख्य कारण उनकी अपनी मां का साहित्य के प्रति गहरा अनुराग ही है।
श्री वल्लभ डोंगरे द्वारा प्रकाशित किताब पवारी परम्पराएं और प्रथाएं की 20 प्रति आरक्षित कराकर श्री देशमुख द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से समाज साहित्य के संरक्षण एवं संवर्द्धन में सहयोग ही किया गया है। इस तरह श्री देशमुख अपनी मां के नक्शेकदम पर चलकर समाज और समाज साहित्य की सेवा ही कर रहे हैं। श्रीमती पार्वती बाई देशमुख के कार्य से उनके घर-परिवार के सदस्यों के साथ-साथ सम्पूर्ण पवार समाज भी गौरवांवित हुआ है। एक निरक्षर का अक्षर कार्य सदैव दूसरों को प्रेरणा देता रहेगा।
श्रीमती पार्वती बाई देशमुख की तीन कविताएं
मला लागली भूक
धीर धरू कोठवरी/माझ्या मायेचं घर/पाण्याचा वाटेवरी/मला लागली भूक/जाऊ कोणच्या डोंगरी/पित्याच्या बगीच्यात/आल्या पाठा उंबरी.
सखी मी जोड़ते
आईच्या आडून/करे येण जाण/मोगन्या खालून/सखी मी जोड़ते/तुझ्यावर जीव/दिसणार कशी?
बाई दरून दिसते
बाई दरून दिसते/माहेरची गं पंढरी/तिथं पित्यानं गं माझ्या/आंबा लावला षंदरी/माझ्या माहेरचा गायी/माझे माय बाप आहे/विट्ठल रखुबाई.
श्रीमती पार्वती बाई देशमुख को मिले सम्मान व विभिन्न गतिविधियों में उनकी सक्रियता के साक्ष्य
पार्वती बाई देशमुख को मिले सम्मान-
- मायके का नाम-गोपिका। उम्र-लगभग 71 वर्ष, गांव-बोरी
- 29 जन 2013 को सकाळ समाचार पत्र में कव्हर कहानी प्रकाषित।
- 20 जन 2013 को सकाळ द्वारा पुनः पूरक जानकारी प्रकाषित।
- 4 फर 2013 को बुक व लिटरेचर महोत्सव में नागनुर महानगर पालिका व व्ही जेएमटी जेजेपी कालेज द्वारा संयुक्त रूप से सम्मानित।
- 13 फर 2013 को टेलीविजन पर कार्यक्रम प्रसारित।
- 14 फर 2013 बुक व लिटरेचर महोत्सव में महापौर नागपुर द्वारा हार्दिक सत्कार।
- 9 मार्च 2013 को सकाळ द्वारा दशकपूर्ति अवसर पर 10 समाजसेवियों का सम्मान, जिसमें श्रीमती पार्वती बाई भी सम्मानित।
- 10 मार्च 2013 को सेवाव्रती सम्मान से सम्मानित।
- 29 दिस. 2013 को विदर्भ भूषण सम्मान से सम्मानित।
समाज और संसार को सहयोग
एक समाज सदस्य को किया गया सहयोग उस सदस्य विशेष तक सीमित न रहकर वह परिवार, समुदाय, समाज, राष्ट्र व संसार तक पहुंचता है। आजादी की जंग में गांधीजी को किया गया सहयोग पूरे देश को आजाद कराने में काम आता है। कण-कण में भगवान होने की बात स्वीकारने और मानने वाले देश में व्यक्ति में भगवान देखने और स्वीकारने की हिम्मत जुटाने की अभी और जरूरत है। पत्थर को भगवान मानने में हमें कोई दिक्कत महसूस नहीं होती पर जब किसी इंसान को भगवान मानने की बात आती है तो हमारा अंहकार आड़े आ जाता है। किसी की अच्छाइयां भी हमें हजम नहीं हो पाती।
किसी का बिना दहेज लिए विवाह करना भी हमें फूटी आंखों नहीं सुहाता क्योंकि वैसा साहस दिखा पाने का या तो हम अवसर खो चुके होते हैं या फिर वैसा साहस दिखाने का हम में दमखम नहीं होता हैं, और वैसा साहस दिखाने के स्थान पर उसका विरोध करना हमें ज्यादा आसान और फायदेमंद लगता है। इसी तरह एक समाज सदस्य को किया गया असहयोग उस सदस्य विषेश तक सीमित न रहकर वह परिवार, समुदाय, समाज, राष्ट्र व संसार के लिए असहयोग हो जाता है और इससे केवल उस सदस्य विशेष का ही नहीं अपितु पूरे परिवार, पूरे समुदाय, पूरे समाज, पूरे राष्ट्र और पूरे संसार का विकास अवरूद्ध हो जाता है। जिस तरह व्यक्ति-व्यक्ति की आय जुड़कर राष्ट्र की आय बनती है, उसी तरह व्यक्ति-व्यक्ति का कार्य जुड़कर समाज का कार्य बनता है। वसुधैव कुटुम्बकम् की संस्कृति वाले समाज और देश में कुटुम्ब के लोगों को ही सहयोग न करके हम वसुधैव कुटुम्बकम् की महान् संस्कृति को केवल बातों के बल पर न तो जिंदा रख सकते हैं न ही आगे बढ़ा सकते हैं।
बोहरा समाज में अपने समाज सदस्य को हर तरह का सहयोग किया जाता है ताकि वह समाज की मुख्य धारा से जुड सके। बोहरा समाज में अपने समाज सदस्य को दुकान खोलने हेतु न केवल आर्थिक सहयोग दिया जाता है अपितु उसी की दुकान से सामान खरीदने हेतु समाज सदस्यों को फरमान भी जारी किया जाता है। इस तरह लिए गए निर्णय का हर सदस्य सम्मान के साथ पालन करता है। यही कारण है बोहरा समाज में सर्वत्र सम्पन्नता नजर आती है। भारत के हर शहर में बोहरा समाज के अतिथि गृह बने हुए मिल जायेंगे जिनमें बोहरा समाज के हर वर्ग के लोग जाकर रूक सकते हैं। इन अतिथि गृहों में निःशुल्क भोजन एवं आवास की व्यवस्था होती है।
पवार समाज सदस्यों में परस्पर प्रेम और आदर भावना की बेहद कमी होती है। यही कारण है मू अउर मरी माय मंढा म नी समाय की तर्ज पर वे किसी में भी सपात नहीं पाते और अंततः अपने झूठे अहम् एवं अंहकार में अपने साथ-साथ समाज का भी अहित ही करते हैं। पवारों में एक कमी और उल्लेखनीय है वह यह कि वे अपने समाज सदस्य की प्रतिभा को स्वीकारने और सम्मान देने में बेहद कृपण हैं। वे उसे स्वीकारने और सम्मानित करने की अपेक्षा उसकी टांग खींचने और उसे अपमानित करने में धरती पाताल एक करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखते। यही कारण है समाज की विकास और उन्नति के षिखर पर पहुंचने की कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह उनकी अज्ञानता और अनपढ़ता ही है पर इसे वे कभी भी स्वीकारना पसंद नहीं करते। यह हठ और जिद ही पवारों का असली दुश्मन है जिसे और कोई नहीं अपितु संबंधित व्यक्ति स्वयं ही मार सकता है।
हम अपनों से सीखने की बजाय उसके किए कराए पर पानी फेरने में ज्यादा रूचि लेते है। यह हद दर्जे का ईष्या, द्वेश करके हम अपने ही समाज के विकास एवं उन्नति के मार्ग में स्वयं सबसे बड़े रोड़े एवं बाधक बन बैठे हैं। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना का दुनिया को संदेश देने वाले देश में ही घर परिवार में परस्पर प्रेम नहीं है ऐसे में पूरी वसुधा को कुटुम्ब मानने वाली उनकी बात बेमानी ही लगती है। पवारों का बेवकूफी भरा पराक्रम बंदर के हाथों उस्तरा लगने जैसा है।यही करण है पढ़े लिखे पवार भी पवार कम गंवार ज्यादा लगते है। उनके किसी भी उपक्रम में परिपक्वता या सम्पूर्णता जैसी कोई बात नजर नहीं आती है। उनका हर कदम अधूरेपन का अधिक और सम्पूर्णता का सीमित आभास ही कराता है। उन्हें अब यह समझना ही होगा कि समाज सदस्यों को किया गया सहयोग ही समाज के विकास एवं उन्नति की नींव रखने में सहायक होगा और उन्हें किया गया हर असहयोग समाज की कब्र खोदने में ही मदद करेगा। अब निर्णय हमें ही करना है कि हम अपने समाज सदस्य को अपेक्षित सहयोग करके समाज को विकास और उन्नति के पथ पर अग्रसर करना चाहते हैं या अपने ही समाज सदस्य को असहयोग करके हम अपने ही समाज के विकास और उन्नति को अवरूद्ध करना चाहते हैं।
- वल्लभ डोंगरे
किसी का बिना दहेज लिए विवाह करना भी हमें फूटी आंखों नहीं सुहाता क्योंकि वैसा साहस दिखा पाने का या तो हम अवसर खो चुके होते हैं या फिर वैसा साहस दिखाने का हम में दमखम नहीं होता हैं, और वैसा साहस दिखाने के स्थान पर उसका विरोध करना हमें ज्यादा आसान और फायदेमंद लगता है। इसी तरह एक समाज सदस्य को किया गया असहयोग उस सदस्य विषेश तक सीमित न रहकर वह परिवार, समुदाय, समाज, राष्ट्र व संसार के लिए असहयोग हो जाता है और इससे केवल उस सदस्य विशेष का ही नहीं अपितु पूरे परिवार, पूरे समुदाय, पूरे समाज, पूरे राष्ट्र और पूरे संसार का विकास अवरूद्ध हो जाता है। जिस तरह व्यक्ति-व्यक्ति की आय जुड़कर राष्ट्र की आय बनती है, उसी तरह व्यक्ति-व्यक्ति का कार्य जुड़कर समाज का कार्य बनता है। वसुधैव कुटुम्बकम् की संस्कृति वाले समाज और देश में कुटुम्ब के लोगों को ही सहयोग न करके हम वसुधैव कुटुम्बकम् की महान् संस्कृति को केवल बातों के बल पर न तो जिंदा रख सकते हैं न ही आगे बढ़ा सकते हैं।
बोहरा समाज में अपने समाज सदस्य को हर तरह का सहयोग किया जाता है ताकि वह समाज की मुख्य धारा से जुड सके। बोहरा समाज में अपने समाज सदस्य को दुकान खोलने हेतु न केवल आर्थिक सहयोग दिया जाता है अपितु उसी की दुकान से सामान खरीदने हेतु समाज सदस्यों को फरमान भी जारी किया जाता है। इस तरह लिए गए निर्णय का हर सदस्य सम्मान के साथ पालन करता है। यही कारण है बोहरा समाज में सर्वत्र सम्पन्नता नजर आती है। भारत के हर शहर में बोहरा समाज के अतिथि गृह बने हुए मिल जायेंगे जिनमें बोहरा समाज के हर वर्ग के लोग जाकर रूक सकते हैं। इन अतिथि गृहों में निःशुल्क भोजन एवं आवास की व्यवस्था होती है।
पवार समाज सदस्यों में परस्पर प्रेम और आदर भावना की बेहद कमी होती है। यही कारण है मू अउर मरी माय मंढा म नी समाय की तर्ज पर वे किसी में भी सपात नहीं पाते और अंततः अपने झूठे अहम् एवं अंहकार में अपने साथ-साथ समाज का भी अहित ही करते हैं। पवारों में एक कमी और उल्लेखनीय है वह यह कि वे अपने समाज सदस्य की प्रतिभा को स्वीकारने और सम्मान देने में बेहद कृपण हैं। वे उसे स्वीकारने और सम्मानित करने की अपेक्षा उसकी टांग खींचने और उसे अपमानित करने में धरती पाताल एक करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखते। यही कारण है समाज की विकास और उन्नति के षिखर पर पहुंचने की कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह उनकी अज्ञानता और अनपढ़ता ही है पर इसे वे कभी भी स्वीकारना पसंद नहीं करते। यह हठ और जिद ही पवारों का असली दुश्मन है जिसे और कोई नहीं अपितु संबंधित व्यक्ति स्वयं ही मार सकता है।
हम अपनों से सीखने की बजाय उसके किए कराए पर पानी फेरने में ज्यादा रूचि लेते है। यह हद दर्जे का ईष्या, द्वेश करके हम अपने ही समाज के विकास एवं उन्नति के मार्ग में स्वयं सबसे बड़े रोड़े एवं बाधक बन बैठे हैं। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना का दुनिया को संदेश देने वाले देश में ही घर परिवार में परस्पर प्रेम नहीं है ऐसे में पूरी वसुधा को कुटुम्ब मानने वाली उनकी बात बेमानी ही लगती है। पवारों का बेवकूफी भरा पराक्रम बंदर के हाथों उस्तरा लगने जैसा है।यही करण है पढ़े लिखे पवार भी पवार कम गंवार ज्यादा लगते है। उनके किसी भी उपक्रम में परिपक्वता या सम्पूर्णता जैसी कोई बात नजर नहीं आती है। उनका हर कदम अधूरेपन का अधिक और सम्पूर्णता का सीमित आभास ही कराता है। उन्हें अब यह समझना ही होगा कि समाज सदस्यों को किया गया सहयोग ही समाज के विकास एवं उन्नति की नींव रखने में सहायक होगा और उन्हें किया गया हर असहयोग समाज की कब्र खोदने में ही मदद करेगा। अब निर्णय हमें ही करना है कि हम अपने समाज सदस्य को अपेक्षित सहयोग करके समाज को विकास और उन्नति के पथ पर अग्रसर करना चाहते हैं या अपने ही समाज सदस्य को असहयोग करके हम अपने ही समाज के विकास और उन्नति को अवरूद्ध करना चाहते हैं।
- वल्लभ डोंगरे
समाज साहित्य के माध्यम से जनजागृति लाता सतपुड़ा संस्कृति संस्थान
शिक्षा समाज की आंख होती है। शिक्षा से व्यक्तित्व परिस्कृत होता है। पर यदि समाज शिक्षा विहीन हो तब उसकी दीनहीनता का पता लगाना कठिन नहीं होता। एक बार एक समाज सेवी डॉक्टर समाज सुधार पर भाषण दे रहा था। वह बता रहा था कि दारू पीना शरीर के लिए कितना नुकसानदायक होता है। शराब की सारी बुराइयों को बता चुकने के बाद डॉक्टर ने दो कांच के ग्लास मॅंगाए। एक में पानी व दूसरे में शराब भरने के बाद उनमें केचुए डाल दिए गए। थोड़ी देर बाद शराब के ग्लास वाला केंचुआ मर गया व पानी के ग्लास वाला केंचुआ जिंदा निकला। इस पर डॉक्टर ने उपस्थित लोगों से पूछा-इससे आप क्या समझते हैं? तो एक शराबी बोला- दारू पीने से पेट के कीड़े मर जाते हैं। यदि गंभीर शिक्षा देने पर भी हम इस तरह अगंभीर ही बने रहे तो कभी भी जीवन में कुछ सीख नहीं पायेंगे।
पंचतंत्र में एक कहानी का उल्लेख है। कहानी चिड़िया और बंदर पर केन्द्रित है। ठंड की ऋतु में बंदर पेड़ के नीचे बैठा ठिठुर रहा था, जिसे देख चिड़िया बोली-तुम्हारे तो इंसानों की तरह हाथ-पैर हैं फिर भी अपना कोई घर नहीं बना पाए। मेरे तो हाथ भी नहीं है फिर भी मैंने अपना घर बना लिया है। चिड़िया की बातें सुनकर बंदर को गुस्सा आ गया। वह पेड़ पर चढ़ा और चिड़िया के घोसले को नोंच कर जमीन पर फेंक दिया। चिड़िया के अंडे-बच्चे मर गए और चिड़िया पल भर में घरविहीन हो गई। किसी को शिक्षा देने के पहले यह जानना जरूरी है कि वह पात्र है भी या नहीं। जिस तरह कुपात्र को दिया गया दान दान नहीं कहलाता उसी तरह कुपात्र को दी गई शिक्षा शिक्षा नहीं कहलाती।
कुपात्र को दी गई शिक्षा के अपने खतरे हैं। परन्तु इन खतरों को उठाए बिना समाज को षिक्षित कर पाना संभव भी नहीं है। किसी भी व्यक्ति के जीवन में दो विकल्प रहते हैं। एक विकल्प उसे सामान्य व दूसरा विकल्प उसे महान बनाता है। दूसरा विकल्प चुनने वाले लोग विरले ही होते हैं। इसलिए महान बनने वाले लोग भी विरले ही होते हैं। दूसरा विकल्प चुनने वाले हट कर करने और हटकर देने वाले होते हैं इसलिए समाज इन्हें सदैव याद रखता है।
एक जापानी कम्पनी ने अपने दो आदमियों को अफ्रीका में जूतों की बिक्री हेतु बाजार की संभावनाओं को तलाषने हेतु भेजा। एक आदमी ने तीन दिन में कम्पनी को रिपोर्ट भेजी कि यहां कोई जूते ही नहीं पहनता, अतः यहां जूतों की बिक्री की कल्पना करना भी बेकार है।दूसरे आदमी ने एक माह तक बाजार की संभावनाओं को लेकर अपनी तलाष जारी रखी और अंततः रिपोर्ट भेजी कि यहां कोई जूते नहीं पहनता अतः यहां तो बाजार ही बाजार है। दूसरे आदमी की तरह सतपुड़ा संस्कृति संस्थान,भोपाल ने भी अपना कार्य जारी रखा और अशिक्षित और अनपढ़ पवारों में समाज साहित्य के माध्यम से जनजागृति लाने का प्रयास जारी रखा। जो कार्य कोई संगठन नहीं कर सका उस कार्य को करने का बीड़ा उठाकर सतपुड़ा संस्कृति संस्थान ने जापानी कम्पनी के दूसरे व्यक्ति की तरह ही धैर्य का परिचय दिया है। 21 वीं सदी में भी इस समाज में करने को इतना कुछ है कि एक पूरी की पूरी सदी इसके विकास और उन्नति के लिए कम पड़ जाएगी।
पिछले दिनों मंडीदीप श्रीराम मंदिर में प्राणप्रतिष्ठा कार्यक्रम व भंडारे का आयोजन था जिसमें सहभागिता करने हेतु 15,000 से ज्यादा समाज सदस्यों को एसएमएस के माध्यम से अनुरोध किया गया था जिसमें से 15 लोगों ने भी जवाब देना उचित नहीं समझा। राजधानी में ही समाज के लगभग 2000 सदस्य हैं जिनमें से 200 सदस्यों का भी कार्यक्रम में नहीं पहुंचना हमारी घृणित सोच और गंदी मानसिकता का प्रतीक है। इसी तरह विवाह योग्य सदस्यों की जानकारी संकलित करने हेतु 200 लोगों को फोन करने पर मात्र 1 या 2 सदस्यों से जानकारी प्राप्त हो पाती है। इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि जानकारी संकलित करना कितना दुरूह कार्य है। सुखवाड़ा ई मासिक पत्रिका लोग नेट से डाउनलोड करके उसमें संकलित जानकारी के आधार पर अपना स्वार्थ साध लेते हैं पर कभी धन्यवाद देने की जहमत नहीं उठाते। 24 अक्टूबर को पूरे विश्व में माफी दिवस मनाया जाता है। जैन धर्म में तो एक क्षमा पर्व ही है। हम कम से कम साल में एक बार इस तरह की सुविधा मुहैया कराने वालों के प्रति अपनी कृतज्ञता तो ज्ञापित कर ही सकते हैं। पर हममें ये संस्कार ही नहीं है वरना इस तरह के कार्य करने वालों के प्रति सम्मान और प्रेम की गंगा बहाने में कोई भी समाज कोताही नहीं बरतता। आज भी समाज संगठनों के निमंत्रण पत्रों में इस तरह के लोगों के लिए स्थान सुरक्षित न रखना एक तरह से समाज की सड़ी गली मानसिकता का ही प्रमाण है।
- वल्लभ डोंगरे
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