Sunday, February 23, 2014

छोटे-छोटे प्रयासों से बड़ी-बड़ी खुशियां बांटता जीवन : वल्लभ डोंगरे

वल्लभ डोंगरे
सन् 1984 की बात है। श्रीमती इंदिरा गाधी की हत्या हो जाने से पूरा शहर आगजनी, हत्या और मारकाट में डूबा था। उन दिनों मैं भोपाल में ही था। 10-15 दिनों तक कर्फ्यू लगा था। खाने-पीने का सामान नहीं था। घर परिवार और गांव के लोग चिंतित थे। उसी वर्ष भोपाल में गैस त्रासदी भी हुई। हजारों लोगों की जाने गई। इसने पूरे भोपाल को झकझोर कर रख दिया। गैस त्रासदी के बाद लूटपाट, अत्याचार अनाचार की घटनाएं बढ़ गई जिससे पूरे शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया। इस समय भी 10-15 दिन तक लोगों को घर से बाहर निकलने पर प्रतिबंध था। मृतक संख्या हजारों में होने से घर परिवार और गाव के लोग घबरा गए। उन दिनों फोन एवं मोबाइल की सुविधा नही थी। कफ्र्यू समाप्त होते ही अपने क्षे़त्र से लोग भोपाल अपने परिजनों की खोज में आ गए। कुछ लोग अपनों की खोज में मुझ तक भी पहुच गए और अपने परिजनों के बारे में जानकारी लेने लगे। मैं उनके किसी परिजन को नहीं जानता था। उस दिन पहली बार मुझे आभास हुआ कि काश मेरे पास इनके परिजनों के नाम-पते होते तो मैं पराए परदेश में इनके काम आ जाता। उसी दिन मैंने अपने मन में संकल्प लिया था कि मैं भोपाल में रहने वाले समाज सदस्यों के नाम पते एकत्रित कर सभी को उपलब्ध कराऊंगा ताकि सुख-दुख के अवसर पर हम एक-दूसरे के काम आ सके।

आप जहां भी है, जैसे भी हैं, वहीं रहकर अपने जीवन को सार्थकता प्रदान कर नई ऊंचाइयाँ दे सकते हैं। इसके लिए आपको किसी बड़े पद पर रहने या किसी संस्था-संगठन से जुड़े रहने की भी जरूरत नहीं है। जरूरत है तो केवल जज्बे,जोष और जुनून की जिसके बल पर आप वह कर सकते हैं जो बड़े पद पर रहकर भी नहीं किया जा सकता या किसी संस्था-संगठन से जुड़े रहकर भी नहीं किया जा सकता। जानिए, ऐसी ही कुछ छोटी-छोटी बातें जो लोगों को बड़ी-बड़ी खुशियां देकर आपके पूरे व्यक्तित्व को ही साधारण के स्थान पर असाधारण बना देती हैं।

सन् 1970 के दषक में गाॅवों में छुआछूत की भावना चरम पर थी। गाॅव के लोहार की मृत्यु हो जाने पर गाॅव के लोग छुआछूत के चलते उसके अंतिम संस्कार को तैयार नहीं थे। लोहार के छोटे-छोटे बच्चों को देख पिताजी द्वारा लोगों से अनुरोध किया गया पर इसका किसी पर कोई असर न देख उन्होंने स्वयं बैलगाड़ी जोतकर व उसमें इंधन भरकर ष्मषान पहुॅचाया और उसी गाड़ी में मृतक लोहार के शव को लादकर ले जाकर अकेले ही अंतिम संस्कार कर दिया गया। इसी तरह एक बार नागपंचमी पर सांईखेड़ा का वृद्ध ढीमर लाही चने बाॅटने व जाल दरवाजे पर लगाने आया हुआ था। इसके बदले में गाॅव के लोग उसे अनाज दे दिया करते थे। लौटते वक्त वह रास्ते में गिरकर बेहोष हो गया एवं वहीं स्वर्ग सिधार गया।पिताजी द्वारा षीघ्र ही सांई्रखेड़ा खबर की गई पर कोई उस षव को लेने नहीं आया। रात में शव को कोई जानवर नुकसान न पहुॅंचा पाएं इस हेतु पिताजी द्वारा उसकी रखवाली के लिए लोगों से विनती की पर छुआछूत के चलते कोई भी इसके लिए तैयार नहीं हुआ। पिताजी द्वारा अकेले ही उस शव की रात भर रखवाली की गई और अगले दिन अकेले ही उसका अंतिम संस्कार करना पड़ा।

   गाॅव में उन दिनों रात्रि विश्राम के लिए कोई साधन नहीं हुआ करता था। ऐसे  में माँ -पिताजी अपने घर में ही दुकानदार, वेैद्य, खरीदार या राहगीरों को रात्रि विश्राम की सुविधा मुहैया करा दिया करते थे। खेत से आने पर माॅं अपने लिए जो भोजन पकाती वह ही रात्रि विश्राम कर रहे लोगों को खिलाती थी। हमारा काम उनको भोजन परोसने का होता था। इस तरह कई सालों तक यह सिलसिला चलता रहा। इस तरह अनजान व राहगीरों को षरण देना भी लोगों को भाता नहीं था और तरह-तरह की बातें की जाती थी। बचपन से ही मैं यह सीख गया था कि लोग न तो स्वयं अच्छा काम करते हैं न ही दूसरे द्वारा किया जा रहा अच्छा काम उन्हें अच्छा लगता है।

मार्च से मई तक गर्मी के तीन माह गाॅव के पालतू जानवरों का पिताजीे हमारे कुएं पर पानी पिलाने की व्यवस्था करते थे। अमराई की घनी छाॅव में पूरी दोपहरी गाॅव के सैकड़ों पषु सुस्ताया करते थे। हम पूरी दोपहरी उनपर नजर रखा करते थे और आम के पेड़ों पर डाब-डुबेली खेला करते थे। जानवरों को पानी पिलाने पर भी लोगों को अच्छा नहीं लगता था। लोग कहते थे हम पिलायेंगे पानी और स्वयं कोई व्यवस्था नहीं कर पाते थे। आखिरकार, हमें ही  पानी पिलाने की व्यवस्था करनी पड़ती थी। अपने माता-पिता से विरासत में मिले सेवा के इन संस्कारों को मैंनेे अपने जीवन में भी जारी रखने का प्रयास किया है।

बैतूल पढ़ने आए तो एक कमरे की क्वाटर में भी गाॅव वालों का ताॅता लगा रहता। कभी कोई बीमार है तो कभी कोई । बीमार व्यक्ति के घर से कोई न कोई क्वाटर पर बना ही रहता। हमें अपना, बीमार व्यक्ति और ऐसे लोगों का भी खाना बनाना पड़ता। कई बार पोस्टमार्टम के लिए पहुॅचे गाॅव के 50-60 लोगों का भी खाना बनाना पड़ता था। हम पढ़ाई के साथ यह सब किया कते थेे। शायद ही कोई सप्ताह सुना जाता रहा हो जब हमारे क्वाटर पर कोई मेहमान न रूकता रहा हो।

पढ़ने के साथ-साथ मुझे पत्र लिखने का बेहद शौक था। मैं जब भी पत्र-पत्रिकाओं में कोई विज्ञापन देखता तो अपने परिचितों को पत्र के माध्यम से इसकी सूचना दे दिया करता था और वे आवेदन कर दिया करते थे। इस तरह गाॅव व शहर में रह रहे कई समाज सदस्य इससे लाभांवित हुए और आज वे कहीं न कहीं नौकरी कर रहे है। पत्र का मैंने विभिन्न कामों के लिए उपयोग किया। अपने घर से दूर रह रहे मित्रों को पत्र भेजकर व उनका मनोबल बढ़ाकर उनका दिल जीता। पोस्टकार्ड/जवाबी पोस्टकार्ड के माध्यम से फोन नं. व पते की जानकारी संकलित की गई। पोस्ट कार्ड का उपयोग विवाह योग्य सदस्यों की जानकारी संकलित करने में भी खूब किया गया। मैं एक बार में 1000-1000 पोस्ट कार्ड खरीदता था। पोस्ट आफिस वाले मुझे व्यक्तिगत रूप से जानने लगे थे। किसी के घर डाक आए न आए मेरे घर रोज डाक जरूर आया करती थी।

पोस्ट कार्ड का उपयोग मैंने विवाह पर बधाई देने, बड़ों को तीज त्योहार व उनकी विवाह वषगाॅठ पर बधाई देने तथा बच्चों को उनके जन्मदिन पर बधाई देने में भी खूब किया। पोस्ट कार्ड पर दी जाने वाली बधाई का इतना व्यापक असर होता कि हर कोई उसे पढ़ता और कार्ड एक हाथ से दूसरे हाथ गुजरकर अंततः एलबम के प्रथम फ्लेप पर स्थान पाता। जन्मदिन पर प्रेषित बधाई भरा पोस्टकार्ड बच्चे अपनी कक्षा के बच्चों को दिखाने ले जाते और वह कार्ड पूरी कक्षा में बड़े चाव से पढ़ा जाता। अपनी खुषी दूसरों में बाॅटने का सलीका मैंने इन्हीं बच्चों से सीखा। सुख-दुख के प्रत्येक अवसर पर व्यक्तिषः उपस्थित न रहकर पोस्टकार्ड के जरिए मेरे द्वारा अपनी अनुपस्थिति को भी सार्थक उपस्थिति में परिणत करने का प्रयास किया जाता रहा। मेरा कार्ड उनके लिए मेरी उपस्थिति बने सदैव यही प्रयास किया जाता रहा। और होता भी यही रहा कि मैं अपने विचारों को पोस्ट कार्ड के जरिए प्रेषित करता और वे सबके हाथों से गुजरते हुए उनके मन-मस्तिष्क तक पहुॅच जाते।

एक बार एक मैडम अपनी दो-तीन साल की बिटिया के साथ अपने पति से दूर दूसरे शहर में रह रही थी। उन दिनों पति-पत्नी के बीच संवाद का जरिया केवल पत्र ही था। फोन व मोबाइल का प्रचलन नहीं था। उनकी बेटी बोली-मम्मा, हर कोई आपको ही पत्र भेजता है मुझे तो कोई भेजता ही नहीं। और ऐसा कहकर वह बड़ी मायूस और उदास हो गई। श्रीमती के माध्यम से मुझे पता चला तो मैंने मेरी श्रीमती के माध्यम से उसका पता ज्ञात किया और उस बिटिया के नाम पत्र लिख दिया। अपने नाम का पहला खत पाकर वह इतनी अभिभूत हुई कि उसके पैर जमीन पर पड़ ही नहीं रहे थे। उसकी खुषी के बारे में जानकर मुझे भी बेहद खुषी हुई और तबसे ऐसे नन्हे-मुन्नों को भी पत्र लिखने का सिलसिला चल पड़ा। इसने मुझे सबका चहेता बना दिया। बच्चे अपने जन्मदिन पर मेरे पत्र का बेसब्री से इंतजार करने लगे।

पत्रों द्वारा न जाने कितने जान-अनजान लोगों को संजीवनी प्राप्त हुई होगी इसकी तो कोई प्रामाणिक जानकारी नही है। परन्तु इन ज्ञात-अज्ञात लोगों द्वारा दी गई दुआओं ने मेरी जिंदगी को काफी खुषनुमा बनाया है। इस संबंध में यही कहा जा सकता है-

          न जाने कौन मेरे हक में दुआ करता है
डूबते को हर बार दरिया उछाल देता है।
सुबह 4-5 बजे घूमने निकलता तो तीज त्योहार पर रास्ते भर सैकड़ांे हस्तलिखितष्बधाई व शुभकामना पत्र बाॅटते चलता। घर के मेन गेट पर मैं उन्हें लगा दिया करता। जब लोगों की नींद खुलती और वे अपना गेट खोलते तो तीज त्योहार पर बधाई व शुभकामना पाकर उनका मन प्रसन्न हो जाता। इस तरह न जाने कितने जान-अनजान लोगों की दुआएं मिलती और दिन खुषी-खुषी बीत जाता।

 पत्र-पत्रिकाओं से जुड़ा होने के कारण बच्चों के साक्षात्कार लेकर प्रकाषित करवाता या उनकी कोई रचना किसी पत्र पत्रिका में प्रकाषित करवा देता जिससे उनकी खुषी का ठिकाना नहीं रहता। वे दिल से मुझे चाहने लगते। कई बच्चों द्वारा आज दिनाॅंक तक उनके प्रकाषित उन कविता-कहानी या साक्षात्कार को सुरक्षित रखा गया है तथा उन्हंे देखकर वे समय-समय पर खुष हो लिया करते हैं।

कार्यालय में सेवारत सैकड़ों अधिकारी-कर्मचारी व उनके परिजनों को उनके जन्मदिन पर बधाई देने का सिलसिला पूरे साल ही जारी रहता। तीज त्योहार पर भी यह सिलसिला जारी रहता। उन्हें पत्र-पत्रिकाओं में लिखने हेतु उकसाता और वे लिखते भी और छपते भी। उन्हंे अपनी छपी रचना का पारिश्रमिक जब मनीआर्डर या चेक के माध्यम से मिलता तो उनकी खुषी का ठिकाना नहीं रहता। इस तरह अपने छोटे-छोटे प्रयासों के माध्यम से लोगों को बड़ी-बड़ी खुषियाॅं देता रहा।

एक बार किसी अनजान बच्चे की 10 वीं कक्षा की मूल अंकसूची बस स्टाप पर पड़ी मिली जहाॅं से इंजीनियरिंग के बच्चे अपनी बस में बैठते थे।उसमें अंकित स्कूल की सील के आधार पर जवाबी पोस्टकार्ड भेजकर संबंधित बच्चे का शाला रिकार्ड में दर्ज पता भेजने का अनुरोध किया गया। पता मिलते ही संबंधित बच्चे को पुनः पत्र भेजकर अंकसूची प्राप्त करने संबंधी अनुरोध किया गया। सुविधा की दृष्टि से पत्र में पता एवं फोन न. दिया गया था ताकि बच्चो को घर ढूॅढने में असुविधा न हो। वह बच्चा आया और अपनी अंकसूची सुरक्षित पाकर दुआएं देते हुए चला गया। आज वह बच्चा इंजीनियर है।

मोहल्ले की सड़क मुख्यतः बारीष के दिनों में पानी से भर जाया करती थी। सभी को आने जाने में परेषानी हुआ करती थी, पर कोई कुछ करना नहीं चाहता था। एक दिन सुबह घूमने के स्थान पर दो घंटे उसकी मरम्मत में देने का विचार आया और फावड़ा तथा तसला लेकर जुट गया। लोग सोकर उठ पाते उसके पूर्व ही सड़क सुविधाजनक रूप से आने जाने के लिए तैयार थी। लोग आते जाते उस अनजान फरिष्ते को दुआएं देते जा रहे थे। उस दिन लगा मानो आज का दिन सार्थक हो गया। पूरे दिन मन प्रसन्न रहा। ऐसे फिर न जाने कितने स्थानों के  के गड्ढे व नालियों की मरम्मत करने का सुख मिला है और लोगो की दुआएं मिली है।

सन् 1984 की बात है। श्रीमती इंदिरा गाधी की हत्या हो जाने से पूरा शहर आगजनी, हत्या और मारकाट में डूबा था। उन दिनों मैं भोपाल में ही था। 10-15 दिनों तक कफ्र्यू लगा था। खाने-पीने का सामान नहीं था। घर परिवार और गाॅव के लोग चिंतित थे। उसी वर्ष भोपाल में गैस त्रासदी भी हुई। हजारों लोगों की जाने गई। इसने पूरे भोपाल को झकझोर कर रख दिया। गैस त्रासदी के बाद लूटपाट ,अत्याचार अनाचार की घटनाएं बढ़ गई जिससे पूरे शहर में कफ्र्यू लगा दिया गया। इस समय भी 10-15 दिन तक लोगों को घर से बाहर निकलने पर प्रतिबंध था। मृतक संख्या हजारों में होने से घर परिवार और गाव के लोग घबरा गए। उन दिनों फोन एवं मोबाइल की सुविधा नही थी। कफ्र्यू समाप्त होते ही अपने क्षे़त्र से लोग भोपाल अपने परिजनों की खोज में आ गए। कुछ लोग अपनों की खोज में मुझ तक भी पहुच गए और अपने परिजनों के बारे में जानकारी लेने लगे। मैं उनके किसी परिजन को नहीं जानता था। उस दिन पहली बार मुझे आभास हुआ कि काष मेरे पास इनके परिजनों के नाम-पते होते तो मेंै पराए परदेष में इनके काम आ जाता। उसी दिन मैंने अपने मन में संकल्प लिया था कि मैं भोपाल में रहने वाले समाज सदस्यों के नाम पते एकत्रित कर सभी को उपलब्ध कराऊंगा ताकि सुख-दुख के अवसर पर हम एक-दूसरे के काम आ सके।

इसी तरह श्री बीजी पवार के देहावसान की सूचना कार्यालय के फोन पर मिली। मैं उनके घर पर पहुॅचा तो पता चला कि उन्होंने तो घर बदल दिया है। मैं और मेरे जैसे कई लोग उनके अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो पाए थे। उसमें कुछ चुनिंदा सदस्य ही पहॅंच पाए थे। इस घटना से मैंें अंदर तक हिल गया और मैंने नाम-पते एकत्रित करने का काम बिना विलम्ब किए प्रारंभ कर दिया। 1985 में ही भोपाल में रह रहे समाज सदस्यों के नाम-पते वाली डायरेक्ट्री के साथ कुछ उपयोगी सामग्री प्रकाषित कर उसे लोगों को उपलब्ध करा दी गई। उसका यह लाभ हुआ कि अपने क्षेत्र से भोपाल आने वाले सदस्य उसे अपने साथ लेकर आते थे।

रोजगार एवं षिक्षा से संबंधित उपयोगी जानकारी होने से बैतूल के हर समाज में उसको काफी सराहा गया था। इसी काम को विस्तार देने की मन में प्रबल इच्छा के चलते मैं गाॅंव गाॅव व शहर-षहर में रह रहे समाज सदस्यों के नाम पते एकत्रित करने लगा और लगभग 15 वर्षों में पूरे भारत भर में रहने वाले समाज सदस्यों के नाम पते एकत्रित कर सन् 2000 के प्रारंभ में ही सम्पर्क शीर्षक से एक डायरेक्ट्री प्रकाषित की जिसमें बैतूल, छिंदवाड़ा, वर्धा,नागपुर ,अमरावती, आदि जिलों के अधिकांष गाॅवों में रह रहे समाज सदस्यों के नाम पते शामिल किए गए थे।

इसके साथ-साथ भारत भर के शहरों में रह रहे व विदेषों में रह रहे समाज सदस्यों के नाम पते भी इसमें शामिल किए गए थे। इसके प्रकाषन से पहली बार लोगों को महसूस हुआ कि समाज के सदस्य न केवल भारत भर में अपितु विदेषों में भी रह रहे हैं। इसके प्रकाषन से लोगों को सुख-दुख में परस्पर सम्पर्क करने में सुविधा होने लगी। उल्लेखनीय है कि इस समय तक समाज सदस्यों के घर फोन की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। विवाह आदि के निमंत्रण पत्र इन प्रकाषित नाम-पते के आधार पर भेजने में लोगों को काफी सुविधा होने लगीे थी। इसके प्रकाषन से हम 20 वीं सदी में ही जागरूक बन सके थे और कुछ न कर पाने के कलंक से बच सके थे अन्यथा एक पूरी की पूरी सदी हमें हमारी निष्क्रियता और आलसीपन के लिए कोसती रहती।

इसके बाद विवाह योग्य सदस्यों की जानकारी वाली पुस्तक जीवनसाथी का प्रकाषन नवम्बर 2000 तक करके समाज के विवाह योग्य सदस्यों के माता-पिता के लिए रिष्तों की इतनी सारी पुस्तक के प्रकाषन से समाज में साहस और हिम्मत की भावना का संचार भी हुआ था। लोग अब पुरातनपंथी सोच से उबरकर नई सोच की ओर बढ़ने लगे थे। इसके प्रकाषन से लोगों को समझ में आने लगा था कि समय के साथ चलने में ही हमारी और हमारे समाज की भलाई है। लोग हिचक छोड़कर अपने घर परिवार के विवाह योग्य सदस्यों की जानकारी देने लगे थे। जिन सदस्यों द्वारा अपने घर परिवार के विवाह योग्य सदस्यों की जानकारी नहीं दी गई थी उनके घर विवाह हेतु कोई रिष्ते नहीं आ पा रहे थे। इस तरह उन्हंे विवाह हेतु काफी इंतजार व परिश्रम करना पड़ा था। उस वर्ष जीवनसाथी के माध्यम से सैकड़ों रिष्ते हुए थे और मेरे घर विवाह के निमंत्रण पत्रों का अम्बार लग गया था।

सन् 2002 तक अधिकांष समाज सदस्यों के घर फोन की सुविधा उपलब्ध हो गई थी। इसे देखते हुए परस्पर सम्पर्क हेतु हॅलो पापा नामक पाॅकेट फोन डायरेक्ट्री प्रकाषित की गई जिसमें पूरे भारत भर व विदेषों में रह रहे समाज सदस्यों के फोन नं संकलित किए गए थे। इसकी लोकप्रियता को देखते हुए वर्ष 2003 में ही इसका दूसरा संस्करण प्रकाषित करना पड़ा था। समाज सदस्य इसे अपने साथ रखने में गौरव का अनुभव करते थे। हॅलो पापा ने गाॅव और शहर के बीच और समाज सदस्यों के बीच की दूरी कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसकी उपयोगिता और सार्थकता के बारे में जानने के लिए एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा। भोपाल में रह रहे सिवनी, पांढुर्णा के देषमुख परिवार के वृद्ध पिताश्री का देहावसान हो गया। उनके रिष्तेदार सिवनी, पांढुर्णा और छिंदवाड़ा में रहते थे। उनके समक्ष उन सबको सूचना देने का संकट उठ खड़ा हुआ। तभी उन्हें याद आया कि उनके पास हॅलो पापा रखी हुई है। वे तत्काल एसटीडी पर गए और उनमें संकलित फोन नम्बर पर अपने रिष्तेदारों को देहावसान की सूचना दे दी। अगले दिन सुबह तक सभी रिष्तेदार अंतिम संस्कार में शामिल हो गए। मैं भी अंतिम संस्कार में उपस्थित था। उस समय श्री देषमुखजी द्वारा सभी समाज सदस्यों को बताया गया कि श्री डोंगरे जी द्वारा प्रकाषित हॅलो पापा के कारण ही आप सब आज अंतिम संस्कार में षामिल हो पाए हैं। उनके इन शब्दों से मुझे लगा जैसे मेरा श्रम सार्थक हो गया और मैं हॅलो पापा के माध्यम से उनके काम आ सका।

इसके पूर्व मैं 3 वर्ष यूनिसेफ ,1 वर्ष यूएनओ व 1 वर्ष यूनेस्को जैसी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं में सेवाएं देता रहा। वहाॅं मानवता की भलाई के लिए काम करते हुए मन में यह विचार आया कि हमारे समाज में भी काफी पिछड़ापन, गरीबी, अज्ञानता और निरक्षरता है, क्यों न अपने समाज के लिए ही अपने स्तर से कुछ सेवा कार्य किया जाएं। अखबारों ,पत्र-पत्रिकाओं में मैंने खूब लिखा और खूब धन भी कमाया पर उसमें वह शांति और सुकून नहीं मिला जो समाज साहित्य के प्रकाषन के बाद मिला। इस तरह मैं समाज के लिए कार्य करने का विचार लेकर समाज के लिए कुछ कर गुजरने की भावना से समाज हित में अपने स्तर से कुछ कार्य करने लगा जिनमें से कुछ के बारे में मैं आपको पूर्व में ही बता चुका हूॅं। यह बात सही है कि किसी संगठन विषेष तक सीमित न रहकर मेरा प्रयास पूरे समाज को समाहित किए हुए है। ऐसा समाज जिसकी कल्पना भारतीय संस्कृति में वसुधैव कुटुम्बकम् के रूप में की गई है।कहने का तात्पर्य यह है कि-क्या चिंता धरती पर छूटी उड़ने को आकाष बहुत है। करने के लिए काम की कमी नहीं है। काम करने के लिए दृष्टि चाहिए।
मै सूरज हूं जिंदगी की रमक छोड़ जाऊंगा 
’गर डूब भी गया तो शफक छोड़ जाऊंगा ।                                                                             -वल्लभ डोंगरे,  संपादक, सुखवाड़ा

सुखवाड़ा का 15 वर्षीय सार्थक सफर

सतपुड़ा संस्कृति संस्थान, भोपाल द्वारा ”सुखवाड़ा” का नियमित प्रकाषन समाज सदस्यों के सुख-दुख को परस्पर एक दूसरे से बांटने के उद्देष्य से दिसम्बर 1999 से प्रारंभ किया गया था। और सुखवाड़ा 15 वर्षों से अपना कत्र्तव्य बखूबी निभाता आ रहा है।

गाॅव गाॅव व शहर शहर में इसके अंकों का पाठकों को बड़ी बेसब्री से इंतजार रहता है। पहले-पहल सुखवाड़ा त्रैमासिकी  निकलता रहा। बाद में इसकी बढ़ती माॅंग और इसके महत्व को ध्यान में रखते हुए इसे मासिक कर दिया गया। यह देष, विदेष में जाने वाला समाज का एकमात्र मासिक है। यही नहीं, यह देष की राजधानी से लेकर सुदूर अंचल तक अपनी पहुॅंच बनाने वाला और पढ़ा जाने वाला समाज का एकमात्र मासिक है।

समय के साथ इसे ई पत्रिका का स्वरूप भी प्रदान कर समाज सदस्यों के ई मेल पर प्रतिमाह इसे उपलब्ध कराया जाता है।इसके प्रति लोगों का रूझान बढ़ने का एकमात्र कारण यह है कि यह नियमित प्रकाषित होता है और इसमें प्रकाषित जानकारी समाजोपयोगी एवं दुर्लभ होती है। गाॅव व शहर में निवासरत समाज सदस्यों के मोबा. न.ं, विवाह योग्य सदस्यों की जानकारी, रीति-रिवाज, मुहावरें एवं लोकोक्ति, पहेलियाॅं, विवाह गीत, समाजोपयोगी लेख व समाज के इतिहास पर जानकारी  के साथ-साथ वर्तमान संदर्भ में उसके महत्व पर तर्कसंगत और शोधपरक जानकारी एक साथ इसके माध्यम से पाठकों को उपलब्ध कराई जाती है।

सतपुड़ा संस्कृति संस्थान, भोपाल के माध्यम से समाज के लगभग 1,500 जोड़े परिणय सूत्र में बॅंधे हैं, पत्रों व फोन पर प्रदत्त विज्ञापनों की जानकारी के माध्यम से आवेदन कर 50 से ज्यादा सदस्य शासकीय सेवाओं में सेवारत हैं,लगभग 50,000 से ज्यादा सदस्य पूरे भारत भर में रह रहे समाज सदस्यों के पते, फोन ,मोबा. न.ं से सुख-दुख के अवसरों पर परस्पर सम्पर्क करके लाभाविंत हुए है,भोपाल में अध्ययनरत गरीब बच्चों का षिक्षण शुल्क भरने में मदद करके उनकी आगे की पढ़ाई को जारी रखने के हरसंभव प्रयास किये गये हैं, इस कार्य में समाज सदस्यों द्वारा भी भरपूर सहयोग प्राप्त करने में सफल हुए हैं,मंडीदीप के मंदिर निर्माण में मनोबल बढ़ाने और सम्मानजनक अर्थ जुटाने में सफल हुए हंै,समाजोपयोगी साहित्य का प्रकाषन कर अपनी संस्कृति, अपने रीति-रिवाज,अपनी धरोहर को संजोने-संवारने और आगे बढ़ाने के हर संभव प्रयास किए जा रहे हंेंै और हमें खुषी है कि इन सब प्रयासों में आप सब हमारे साथ हैं।

सुखवाड़ा को इस स्वरूप तक पहुॅचाने में जिन समाज सदस्यों का मुख्य योगदान रहा है उनमें श्री श्यामकांत पवार, श्री अविनाष बारंगे, श्री दिनेष डोंगरदिये, श्री बी एल देषमुख, श्री हरीष कोड़ले, डाॅ आर एन घागरे, श्री राजेष बारंगे,श्री चन्द्रकांत पवार,श्री गुलाबराव देषमुख,श्री वासुदेव भादे,श्री बीडी टोपले,श्री पी आर बारंगे, श्री के एल परिहार,श्री पी एल बारंगे, श्री अषोक डहारे, श्री एसएम खवसे, श्री गुलाब बोवाड़े, श्री एस डी धारपुरे, श्री एम आर पवार, डाॅ कुलेन्द्र कालभोर,डाॅ हेमलता डहारे,श्री निर्मल बोवाड़े,श्री राधेष्याम देषमुख, श्री विजय कड़वे, श्री ब्रजमोहन हजारे, श्री सुदामा बोबड़े, श्री गेंदूलाल पवार, श्री शामराव कोरडे  भोपाल, श्री बलराम बारंगे डहुआ, श्री गणेष पवार, श्री यादोराव पवार पालाचैरई, स्व. श्री सुदरलाल देषमुख, श्री संजय पठाड़े, श्री एनएल पवार दीप, श्री अनिल पवार श्री रामचरण देषमुख, श्री मुन्नालाल बारंगा,श्री शंकर पवार, मुलताई, स्व. श्री चन्द्रषेखर बारंगा, श्री उदल पवार, श्री कन्हैयालाल बुवाड़े, श्री अविनाष देषमुख, डाॅ अषोक बारंगा,श्री किसनलाल बुवाड़े,श्री शंकर पवार बैतूल, श्री अखिलेष परिहार ,श्री  कमल पवार श्री अजय पवार, बैतूलबाजार, श्री विट्ठलनारायण चैधरी, श्री सुरेष देषमुख, श्री ज्ञानेष्वर टेंभरे, श्री दिलीप कालभोर नागपुर, श्री संजय देषमुख,श्री तानबाजी बारंगे, श्री संतोष कौषिक, श्री रमेष धारपुरे,पांढुर्णा, श्री रामदास घागरे,दाड़ीमेटा श्री पी बी पराड़कर सिवनी, श्री एनआर पवार होषंगाबाद, श्री बलराम डहारे, श्री कृष्णा कड़वेकर,श्री धनष्याम कालभोर,मंडीदीप,  डाॅ श्री विजय पराड़कर छिंदवाड़ा, श्री संतोष पवार सिंगरौली, श्री नंदलाल बारंगे, श्री मधुसूदन बोबड़े जबलपुर,श्री भगवत बुवाड़े चन्द्रपुर, श्री उमेष देषमुख, अलीबाग, श्री मधु बारंगे,सारनी, श्री बी आर ढोले, श्री शंकर पवार, पाथाखेड़ा, श्री सुनील बोबड़े द्वय महू आदि प्रमुख हैं।

सृजन निर्मल कार्य है पर यह निर्मम होता है।सर्जक कई मौत मरकर सृजन करता है। यह मौत कई बार बाहरी ताकतों से और कई बार अंदरूनी ताकतों से होती है। सृजन के लिए सर्जक को कई बार अपने प्रति भी निर्मम होना पड़ता है जिससे उसके अपने प्रियजन भी उसकी निर्ममता का षिकार हुए बिना नहीं रह सकते। मेरी पत्नी गीता डोंगरे एवं पुत्र विभांषु डोंगरे इसका अपवाद नहीं हंै। उन्हंे कई बार मेरे दायित्वों का निर्वहन भी करना पड़ा है। और न चाहकर भी लोगों से ऐसी बातें सुनना पड़ी है जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। उन्हें यह पहली बार आभास हुआ कि अच्छे काम भी लोंगों को अच्छे नहीं लगते। परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि यदि आप अच्छा काम करते हैं तो आपको सहयोग और सम्मान भी अच्छा मिलता है और जीवन सफल व सार्थक हो जाता है। खैर, इसके प्रकाषन में कई ज्ञात और अज्ञात सदस्यों का समर्पण और त्याग रहा है जिसके बिना अब तक की यात्रा संभव नहीं थी। जिन सदस्यों के नाम यहाॅं भूलवष नहीं लिये जा सके वास्तव में वे किसी मंदिर के नींव केे पत्थर की भांति महत्वपूर्ण हैं जिनके बिना न तो मदिर बन सकता था न ही कंगूरा इठला सकता था। उन सभी ज्ञात-अज्ञात सहयोगियों के प्रति मेरा सादर नमन्।

वल्लभ डोंगरे,सतपुड़ा संस्कृति संस्थान,भोपाल

संपादकीय : समाज को आपने क्या दिया है?

समाज के लोगों द्वारा यह कहते हुए प्रायः सुना जाता है कि समाज ने हमें क्या दिया है ? ऐसे लोग प्रायः यह भूल जाते हैं कि समाज हमसे अलग नहीं है और हम समाज से अलग नहीं हैं। हम ही समाज है और समाज भी हम ही है। जिस तरह धरती में हम बीज बोकर उसका कई गुणा धरती से प्राप्त करते हैं उसी तरह समाज को कुछ देकर ही हम उससे प्राप्त करने की उम्मीद कर सकते हैं। वास्तव में, समाज हमें वही देता है जो हम उसे देते हैं। अभी हो यह रहा है कि हम समाज को कुछ दिये बिना ही उससे सब कुछ प्राप्त करने की उम्मीद करते रहते हैं और यही हमारे दुख का सबसे बड़ा कारण भी है।

जब तक आप धरती में बीज नहीं बोयेंगे तो फसल कैसे काट पायेंगे ? बीज बोये बिना फसल काटने जायेंगे तो खेत तो बंजर ही मिलेगा न ? समाज तो धरती की तरह आपको सदैव से देता ही आया है। बस, आप उसे देख नहीं पा रहे है या आपने उसे देखने की कभी कोषिष ही नहीं की है। यह समाज का नहीं, अपितु आपका दोष है। जिस समाज में आपने जन्म लिया क्या आप इतने बड़े अपने आप हो गये ? कभी आपने सोचा है कि आपके परिजनों के अलावा कितनों ने आपको गोद में लिया है, कितनों ने आपको खिलाया है, कितनों ने आपकी गंदगी साफ की है, कितनों ने आपको नहलाया-धुलाया, खिलाया-पिलाया है, कितनों ने आपके आॅंसू पोंछे हैं, कितनों ने आपको हॅसाया है, कितनों ने आपको शाला तक जाने में साथ दिया है, कितनों ने आपको पढ़ना-लिखना सिखाया है, कितनों ने हाट-बाजार,मेले में आपका हाथ पकड़कर घुमा-फिराकर सुरक्षित घर वासप लाया है, कितनों ने आपके सुख-दुख में रात-रात भर जागकर आपको सहयोग किया है ताकि आप सो सके, कितनों ने आपको सायकल, स्कूटर, मोटरसायकल, कार आदि चलाना सीखते  समय आपके धीरे-धीरे चलाने को झेला है और जाने की जल्दी होने पर भी आपके सीखने में उनके द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग किया गया है, आपके घर मिर्ची का तड़का लगने पर पड़ोसी को कितनी बार बिना कारण छींकना पड़ा है।

आपके घर आयोजनों में लोग कितनी दूर से अपना समय और पैसा खर्च करके आये हैं ताकि आपका कार्यक्रम सफल हो सके, समाज में आपका मान-सम्मान बना रह सके, कितनों ने आपके विवाह में उपस्थित होकर आपके सुखमय वैवाहिक जीवन की कामना की है, कितनों ने आपके बच्चांे के जन्म और जन्मदिन पर उपस्थित होकर उन्हें आषीर्वाद दिया है, कितनों ने आपके घर गमी होने पर उसे श्मशान तक पहुॅचाने में आपका साथ दिया है, कितनों ने आपके इस दुख के अवसर पर अपना कामकाज छोड़कर आपके साथ पूरे 11 दिनों तक रहकर आपको संबल प्रदान किया है, कितनों ने आपके दुख के अवसर पर आपके घर चूल्हा न जलने पर अपने घर का बना हुआ खाना खिलाया है,  कितनों ने बाजार से आपका सामान लाकर आपको दिया है, कितनों ने आपके परिजनों के लिए बाजार से दवाई लाकर दी है, कितनों ने आपके परिजनों के अस्वस्थ होने पर अस्पताल में दिन और रात काटे हैं, इतना सब कुछ करने के बाद भी आप कहते हैं कि समाज ने मुझे क्या दिया ? यह तो एक तरह से समाज के प्रति घोर कृतघ्नता ही है। यदि आपमें थोड़ी भी हया और शर्म शेष है तो यह प्रष्न अपने आप से करना सीखें कि आपने अब तक समाज को क्या दिया है ?

   आज यदि समाज में अनपढ़ता है तो इसका कारण यह है कि हम पढ-लिखकर समाज की अनपढ़ता को दूर करना भूल गए। आज यदि समाज में दहेज प्रथा है तो इसका कारण यह है कि हमने भी अपने विवाह में अच्छा-खासा दहेज लिया था। आज यदि समाज का भवन नहीं है तो इसका तात्पर्य यह है कि हम अपना घर तो बनाते रहे पर कभी समाज के लिए सोचना भी उचित नहीं समझा। आज यदि समाज में बेरोजगारी है तो इसका कारण यह है कि हमने नौकरी में लगकर कभी अपने बेरोजगार भाई-बहनों की ओर झाॅेककर भी नहीं देखा। आज यदि समाज में गरीबी है तो इसका कारण यह है कि हमारे पास चार पैसे आने पर हमने कभी उसे समाज पर खर्च करना मुनासिब नहीं समझा। अच्छा पद और प्रतिष्ठा पाने पर हमने केवल अपना विकास किया और समाज की कभी सुध लेना उचित नहीं समझा। हम केवल और केवल आत्मकेन्द्रित होकर रह गये। हम यदि समाज के बारे में सोचते, समाज के विकास के बारे में सोचते या  समाज हित में कोई कारगर कदम उठाते तो आज समाज भी विकास और उन्नति की राह पर दिखाई देता, पर ऐसा नहीं हुआ। गाॅव के लोग पढ-लिखकर शहर पहुॅच गये, विदेष पहुॅंच गये पर समाज आज भी गाॅव में ही निवासरत और संघर्षरत है। सम्पूर्ण समाज की उन्नति और विकास के बिना किसी व्यक्ति विषेष की उन्नति ओैर विकास भी अधूरा ही है क्योंकि समाज का विकास एक व्यक्ति से नहीं अपितु उसके समस्त व्यक्तियों से जुड़ा होता है।

  गुजराती आज पूरे संसार में व्यवसाय कर रहे हैं। वे अपने घर और समाज से दूर रहकर भी अपने घर और समाज से कभी दूर नहीं हुए है। वे आज भी अमेरिका में नौकरी करते हुए भी अपने गाॅव के मंदिर हेतु नियमित सहयोग करते हैं, गांव  के बच्चों की उचित षिक्षा-दीक्षा हेतु कम्प्यूटर और नेट की व्यवस्था करते हैं।अपने गुरुओं को सेवानिवृत्त होने पर भी 5 सितम्बर को सम्मानीत करते हैं। अन्य प्रदेशों के कुछ उदाहरण प्रस्तुत है-

तमिलनाडु-

  • चेन्नई में स्कूल के छोटे बच्चों को सड़क पार कराने के लिए समुदाय के सदस्यों द्वारा नियमित सहयोग किया जाता है।
  • प्रदेष की शालाओं में मदर्स क्लब का गठन किया गया है जो प्रतिदिन शाला में उपस्थित होकर परिसर की साफ-सफाई, टाइलेट्स की साफ-सफाई ,मध्याह्न भोजन की गुणवत्ता आदि की नियमित मानीटरिंग करता है।
  • महत्वपूर्ण त्योहारों का आयोजन, खेलकूद, वार्तालाप, व्याख्यान आदि के अवसर पर समुदाय की सहभागिता सुनिष्चित कर समुदाय को शिक्षा से जोड़ने का प्रयास किया जाता है।
  • बेटी बचाने के उद्देष्य से प्रदेष में कन्या शिशु  बचाओ कार्यक्रम चलाया जा रहा है।

कर्नाटक-

  • कर्नाटक में बच्चों के बीच जातपाॅत की गहरी भावना पाई जाती है। ऊॅची जाति के बच्चों का नीची जाति के बच्चों के साथ न बैठने और उनके साथ खाना न खाने के चलते इस भावना को मिटाने के लिए खेल का सहारा लिया गया। आपस में खेल खेलने के लिए बच्चे सहमत हो गए और जातपात की भावना भूलाकर धीरे-धीरे वे एक दूसरे का हाथ थामकर खेल खेलने लगे।
  • कर्नाटक में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिष्चित करने के उददेष्य से ”नम्मा शाले” (समुदाय और शाला को समीप लाना) नामक कार्यक्रम चलाया जा रहा है जिसके माध्यम से समुदाय और शाला को समीप लाने का अनूठा प्रयास किया जा रहा है। अपने गाॅव के सरकारी स्कूल में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिष्चित करने के लिए समुदाय और शाला के संयुक्त प्रयास से योजना व प्रबंधन इस तरह किया जाता है कि दोनों ही परस्पर पूरक व सहयोगी साबित हो रहे हैं। इसमें  7 प्रकार के स्टेकहोल्डर्स हैं-बच्चे, अभिभावक, शिक्षक, एसडीएमसी के सदस्य, समुदाय आधारित संगठन, ग्राम पंचायत, और षिक्षा प्रषासक जिन्हें इन्द्रधनुषीय स्टेकहोल्डर्स कहा जाता है।
  • एसएमसी के सदस्यों की उपस्थिति बढ़ाने व समुदाय की सहभागिता सुनिष्चित करने के लिए स्कूल की बैठक के पूर्व अन्य विभाग के अधिकारियों द्वारा उपयोगी जानकारी प्रदान करने से अच्छे परिणाम सामने आए हैं। जैसे-बोनी के अवसर पर किसानों को बीज व खाद की जानकारी देना।

आंध्रप्रदेश-

  • ऋषिवेली में संचालित सेटेलाइट शालाओं में षिक्षकों के साथ-साथ समुदाय के लोगों को भी बारी-बारी से अपने व्यवसाय से संबंधित जानकारी प्रदान करने के लिए अवसर प्रदान किए जाते हैं। बच्चों को अपने माता-पिता व दादा-दादी से कहानी सुनकर उसे कक्षा में सुनाने के लिए कहा जाता है जिसे बच्चे ”मेरी कहानी” के नाम से कागज पर लिखकर कक्षा में प्रदर्षित भी करते हैं।

गुजरात

  • प्रदेष में षिक्षा की गुणवत्ता सुनिष्चित करने के उद्देष्य से ”गुणोत्सव” नामक शैक्षिक कार्यक्रम वर्ष में तीन-तीन दिनों के लिए दो बार आयोजित किया जाता है। इस कार्यक्रम के अवसर पर जनप्रतिनिधि,ग्राम पंचायत के प्रतिनिधि एवं एसएमसी के सदस्यों की सहभागिता अनिवार्य होती है। परिणाम की घोषणा के अवसर पर सभी सरपंच,एसएमसी के सदस्य उपस्थित रहते हैं और अपनी अपनी शाला का परिणाम बेहतर लाने की होड़ मची होती है। बेहतर परिणाम देने वाली शाला को अनुपम शाला कहा जाता है जो उस क्षेत्र की आदर्ष शाला होती है। अनुपम शाला कहलाना ही षिक्षक व गाॅव के लोगों के लिए गौरव की बात होती है। षिक्षा में समुदाय की सहभागिता से बेहतर परिणाम लाने का यह प्रयास अनुकरणीय है।
  • बच्चों में प्रकृति व पर्यावरण के प्रति संवेदनषीलता व प्रेम विकसित करने के उद्देष्य से सभी शालाओं में अक्षयपात्र रखे जाते हैं जिनमें बच्चे अपने घर से माचिस की डिबिया भर सप्ताह में एक बार अनाज लाते हैं जिसे अक्षयपात्र में इकट्ठा किया जाता है और पक्षियों को खिलाया जाता है। यह समुदाय के सहयोग के बिना संभव नहीं है।
  • ”कन्या केलवनी रथ यात्रा”-षालाओं में बालिकाओं का शत प्रतिषत नामांकन सुनिष्चित करने के उद्देष्य से ”कन्या केलवनी रथ यात्रा” समुदाय के सक्रिय सहयोंग से  गाॅव गाॅव निकाली जाती है, जिसपर कन्याओं को बिठाया जाता है तथा कन्याओं को शाला भेजने हेतु अभिभावकों को अभिप्रेरित किया जाता है। विद्यालक्षी बांड योजना के तहत कक्षा 1 में कन्या को दर्ज करने पर बच्ची के नाम से 1000 रु जमा किए जाते हैं। प्रारंम्भिक षिक्षा पूरी करने पर ब्याज सहित राषि संबंधित पालक को दे दी जाती है।
  • पालक पिता योजना- विद्यालक्षी बांड योजना के तहत कक्षा 1 में बच्चे को दर्ज करने पर बच्चे के नाम से 1000 रु जमा किए जाते हैं। प्रारंम्भिक षिक्षा पूरी करने पर ब्याज सहित राषि संबंधित पालक को दे दी जाती है।
  • विद्यादीप योजना-षाला में दर्ज बच्चे का अकस्मात घायल होने पर रु 25,000 व उसकी मृत्यु हो जाने पर रु 50,000 की राषि पालक को सहायतार्थ प्रदान की जाती है।
  • सीडब्ल्यूएसएन बच्चों के लिए प्रोत्साहन राषि-पालक की 50,000 तक वार्षिक आय होने पर कक्षा 1 से 8 तक के बच्चों को  1000/- व कक्षा 9 से आगे अध्ययनरत होने पर 5000/- छात्रवृत्ति देने का प्रावधान है। रु 25,000 से कम आय होने पर रु 5000/-की राषि प्रति वर्ष ट्राइसायकल/सिलाई मषीन/कम्प्यूटर आदि खरीदने के लिए दी जाती है। 40 प्रति. से अधिक विकलांगता होने पर 17 वर्ष की उम्र तक 200/- प्रति माह व 18 से 64 वर्ष की उम्र में 400/- प्रति माह सहायता प्रदान की जाती है।
  • तिथि भोजन-समुदाय की सहभागिता सुनिष्चित करने के उद्देष्य से गुजरात के गाॅवों में तिथि भोजन का प्रचलन चल पड़ा है। प्रतिदिन किसी न किसी के घर से बच्चों के लिए भोजन पकाकर स्कूल में पहुॅचा दिया जाता है। पूरे माह भर के लिए तिथि भोजन की तिथि इच्छुक अभिभावकों से पूर्व में ही ले ली जाती है। इस तरह स्कूल के बच्चों के भोजन की व्यवस्था समुदाय की सहभागिता द्वारा सफलतापूर्वक की जा रही है।

प. बंगाल-

  • प. बंगाल में मध्याह्न भोजन हेतु जब सब्जियाॅं खरीदी जाती है तब समुदाय का सहयोग उल्लेखनीय होता है। उदाहरण के लिए-यदि मध्याह्न भोजन हेतु 40 किलो सब्जी खरीदी जाती है तो 20 किलों सब्जी का ही पैसा लेकर 20 किलो सब्जी दुकानदार द्वारा दान में दे दी जाती है। इस तरह षिक्षा में  समुदाय का सहयोग प्राप्त होता है।
  • कन्या समृद्धि योजना- कन्या समृद्धि योजना के अंतर्गत माॅं को दो बेटी के जन्म तक बेटी के जन्म पर 1500/- सहयोग राषि प्रदान की जाती है।

केरल-

  • मछली पकड़ने वाले परिवारों के बच्चों को मछुआरा छात्रवृत्ति एवं, बीड़ी बनाने वाले परिवारों के बच्चों को बीड़ी छात्रवृत्ति प्रदान की जाती है।

हिमाचल प्रदेश-

  • गरीबी रेखा से नीचे के परिवार के बच्चों को गरीबी छात्रवृत्ति दी जाती है।
  • प्रदेष में ”बेटी है अनमोल योजना” बेटी बचाने के उद्देष्य से चलाई जा रही है।
जरूरी नहीं कि समाज को ज्यादा देने के चक्कर में हम कम देना भी भूल ही जाए। सवाल कम और ज्यादा का नहीं अपितु आपकी भावना का है। आप अपने समाज को एक रुपया देकर तो देखें, बदले में समाज आपको कितना क्या देता है आप स्वयं जान जायेंगे। यदि नहीं भी जान सके तो आपके द्वारा उठाया गया कदम उस पौधे रोपने की तरह होगा जिसके फल रोपने वाला भले ही न खा पाए पर उसके बाद की पीढ़ियाॅं उनका स्वाद जरूर चखेगी। आपका पौधे रोपना ही बहुत कारगर कदम है। आज पौधे रोपने वाले कम और फल खाने वाले ज्यादा हो गये है। इसीलिए समाज में गरीबी है, अवनति है, अविकास है। आइये, हम एक छोटी शुरुआत करके अपने समाज को आगे बढ़ाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दें।          

                       वल्लभ डोंगरे, भोपाल-9425392656

सुखवाड़ा, दिसंबर-2013 : अंक के आकर्षण

       
मैं बचाता रहा दीमकों से घर अपना,
और चंद कुर्सी के कीड़े पूरा मुल्क खा गये।

अंक के आकर्षण

  • संपादकीय-समाज को आपने क्या दिया है?
  • सुखवाड़ा का 15 वर्षीय सार्थक सफर
  • छोटे-छोटे प्रयासों से बड़ी-बड़ी खुशियां 
  • जन जागृति लाता सतपुड़ा संस्कृति संस्थान
  • समाज सदस्य को सहयोग संसार को सहयोग
  • समाज समाचार
  • विवाह योग्य सदस्यों की जानकारी
  • पाठकों की प्रतिक्रिया
  • छिंदवाड़ा जिले के समाज सदस्यों के मो.न.
  • सीखों सबक पवारों

सुखवाड़ा आपका अपना मंच है। आप अपनी रचनाएं भेजकर इस मंच पर अपनी भूमिका बखूबी निभा सकते हैं। इसके लिए आप सादर आमंत्रित हैं।

लेखन,संपादन, प्रकाशन 

वल्लभ डोंगरे
सतपुड़ा संस्कृति संस्थान,
एच आईजी-6,सुखसागर विला,
फेज-1, भेल,भोपाल-462022
मोबा.09425392656
ई-मेल- vallabhdongre6@gmail.com

सुखवाड़ा, दिसंबर-2013  

Wednesday, February 19, 2014

सुखवाड़ा अब ऑनलाइन पढ़िए

मित्रों, सतपुड़ा संस्कृति संस्थान द्वारा पिछले 15 वर्षों से प्रकाशित मासिक पत्रिका 'सुखवाड़ा' आप ऑनलाइन भी पढ़ सकेंगे। आप यहां अपनी प्रतिक्रिया भी आसानी से दें सकते हैं। हमसे संपर्क के लिए ई-मेल- sssbpl12013@gmail.com